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'गीता-शिक्षण'

पूर्वजोंकी पूँजीका दुरुपयोग है; अथवा कह सकते हैं कि हम लकीरके फकीर होकर अक्षरार्थ करने बैठ गये हैं। आज विचार करें तो इसे शरीर-यज्ञ नहीं कह सकते। आजके ज़मानेके अनुरूप और इस देशकी परिस्थितिके अनुरूप शरीर-यज्ञ करना हो तो वह चरखा ही हो सकता है। उसी तरह जैसे मैंने जंगलके विषयमें समझाया। उस समय घने जंगलोंमें जाकर लकड़ी काट लानेके विचार मात्रसे आदमी काँप जाता होगा। किन्तु जब उसे धर्म कह दिया गया, तब श्रद्धालुने उसे काट डाला। क्योंकि कहनेवालेके प्रति उसके मनमें पूरा विश्वास था। ऐसा श्रद्धालु व्यक्ति तो जंगल काटने में लगा ही रहेगा। (स्टीवेंसनने मैनचेस्टरकी खाईके बारेमें जो कहा उसपर विचार कीजिए। उसने कहा, रात-दिन मिट्टी डालते रहो।) यदि जंगल काटनेका हुक्म न मिला होता, तो सर्प बढ़ते और हवा विषैली हो जाती। किसीने कहा है कि सद्- विचार एक ही मनुष्यके मनमें आया और उसने उसपर अमल किया, इसीलिए वह फैल गया। साधन व्यवहारमें आया कि साध्य प्राप्त हुआ समझिये। आरम्भ होना ही पर्याप्त है। मुसीबतें आयें तो भी अपना काम तो करते ही जाना चाहिए। श्रद्धालुके लिए निष्फलता-जैसी कोई चीज नहीं है। वह कहेगा, हो सकता है यह जगतके लिए निष्फल हो, किन्तु मेरे लिए वैसा नहीं है। इसीका अर्थ है अनासक्त कार्य। ऐसा व्यक्ति आशा नहीं रखता, और धैर्य रखता है। वह ऊहापोह नहीं करता और उतावला नहीं होता।

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बुधवार, १४ अप्रैल, १९२६

कल यज्ञका अर्थ समझा — शरीर-श्रम, मजदूरी, पारमार्थिक मजदूरी। उक् श्लोकमें इन्हीं बातोंका समावेश है। 'यज्ञके साथ-साथ उत्पन्न किया इसका क्या अर्थ हुआ? मजदूरी हमारे साथ जन्मसे ही जुड़ी हुई है। जैसे जरा और मृत्यु जन्मसे जुड़े हुए हैं। किन्तु व्यक्ति आपापोषी होकर स्वेच्छाचारी हो जाता है अथवा सुख भोगनेके विचारसे श्रम करता है। इस तरह सृष्टि नहीं चल सकती और सृष्टि नहीं चल सकती अर्थात् स्वयं व्यक्ति भी नहीं चल सकता। मनुष्य जन्मसे ही असहाय होता है। उसे किसी न किसी मातृदेव अथवा पितृदेवकी शरणकी आवश्यकता होती है। मनुष्य पराधीनतामें जन्म लेता है और पराधीनतामें हो मरता है। स्वाधीनता तो एक मानसिक स्थिति है। स्वाधीन तो मनुष्य जितना अपनेको माने उतना ही कहला सकता है। वह कहेगा कि मैं स्वेच्छासे नियमके आधीन चल रहा हूँ। किन्तु कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें यदि व्यक्ति न माने तो राजाका राज्य ही न चले। अपने गुनाहको आदमी स्वयं ही नहीं पचा सकता। उसके संगी-साथियोंतक को उसका फल भोगना पड़ता है। पाप करना भी कच्चा पारा लेने जैसा है अर्थात् व्यक्ति हरएक बातमें पराधीन ही है। कुछ एक बातोंमें वह स्वाधीन है और इसलिए यह अच्छा है कि वह जो-कुछ करे, यज्ञ रूपमें करे। यज्ञ हमारे साथ-ही-साथ इसलिए पैदा हुआ है कि हम