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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देवोंकी सेवा करें, और देव हमारी सेवा करें। यदि हम उनके अधीन चलेंगे तो वे हमारे अधीन हैं ही। चरखा यज्ञ इस युगका यज्ञ है। किन्तु यज्ञका जो मुख्य अर्थ यहाँ है, हमें वही अर्थ ध्यानमें रखना है। अन्य सारे यज्ञ उसीके अन्तर्गत आ जाते हैं। सबसे स्थूल प्रवृत्ति है खाने-पीनेकी। देह तो दासके रूपमें ही पैदा हुआ है। यदि हम केवल आत्माके हुक्मपर देहका निर्वाह करते रहें तो मोक्ष मिल जायेगा। देहका उपयोग आत्माके लिए और जगतके लिए करना चाहिए। सभी आदमी अलग-अलग काम करते हैं, इसलिए कायदेमें 'लीगल फिक्शन' (झूठी कल्पना) के नामसे जो यह कहा गया है कि राजा दोष करता ही नहीं है, उसे मान लें तो राजा भी अच्छा कहा जायेगा। आज राजा पाखण्डी है तो प्रजा भी पाखण्डी है। हम भी कुछ झूठी कल्पनाओंको रूढ़ कर लेते हैं। चरखेमें हमने यह कल्पना की है कि हम उसके मारफत अपनेको सारे जगतसे जोड़ लेते हैं। लकड़ी जलाने और घीकी आहुति देनेसे सम्बन्धित यज्ञकी कल्पनाको हमने छोड़ दिया है।

यज्ञका यह अर्थ मैंने आज ही किया हो, सो बात नहीं है; जबसे मैं 'गीताजी' पढ़ रहा हूँ तभीसे मैंने इसका यही अर्थ किया है। रूसी लेखक बोन्डोरेफकी 'ब्रेड लेबर' (मजदूरी करके रोटी कमाओ) नामक पुस्तक जब मैंने पढ़ी तो मेरा यह विचार पक्का हुआ। किन्तु कल्पना तो यह मेरे मनमें पहलेसे ही थी। और फिर वह बढ़ती ही चली गई। इस रूसी लेखकने इसका एक ही पहलू बताया है। हम दूसरा पहलू भी समझ गये हैं। हम आज 'ब्रेड लेबर' अर्थात् जीविकाके लिए मजदूरीवाली बातको अधिक व्यापक रूपमें देखते हैं; क्योंकि हम यज्ञको केवल आजीविकाके लिए की गई मजदूरी नहीं मानते। हम उसे केवल आसपासके वातावरणके लिए भी नहीं मानते। यहाँ उद्देश्य शारीरिक मजदूरीसे है। बारह घंटे शरीर-श्रम करनेवाला ही भोजन पायेगा। जिसे सच्चे ब्रह्मचर्य का पालन करना है, स्वच्छ रहना है, विकार-मुक्त रहना है, उसके लिए शरीर-श्रम अनिवार्य है। मजदूर हमारे बराबर विकारवश नहीं रहते। सम्भव है, उनकी बुद्धि जड़ होती हो, किन्तु विकारवश होनेसे जड़ होना बहुत अच्छा है। संसारमें बुद्धिमान लोग न हों तो भी संसार चलता रह सकता है। किन्तु यदि शरीर श्रमका लोप हो जाये तो दुनिया कैसे टिकेगी? शरीर-श्रमके नियमका सम्मान करके हमने बुद्धिमानी की है। व्यापकसे-व्यापक शरीर-श्रम खेती है। और उसे यज्ञ रूप समझना चाहिए।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तं दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः॥(३,१२)

देवतागण यदि यज्ञसे सन्तुष्ट हो जायें अर्थात् यदि वे तुम्हारी परोपकारी प्रवृत्ति, देहसे किये गये तुम्हारे श्रमसे सन्तुष्ट हो जायें तो वे तुम्हें इष्ट भोग देंगे अर्थात् समाज-रूपी देवता तुम्हें भोग देगा। इनके द्वारा प्राप्त करनेपर भी जो दूसरोंको नहीं देता, वह व्यक्ति चोर है। जो व्यक्ति समाजके लिए अपने शरीरसे श्रम नहीं करता, वह चोर है।