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'गीता-शिक्षण'

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुंजते ते त्वधं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥(३,१३)

जो व्यक्ति यज्ञ कर चुकनेके बाद जो कुछ अवशिष्ट रह जाता है, उसे खाते हैं, वे सत्पुरुष सभी पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। सब-कुछ समाजको अर्पित करके, कृष्णार्पण करके खानेवाला पापमुक्त है। किन्तु जो अपने ही लिए भोजन बनाता है और केवल स्वार्थके लिए श्रम करता है, वह व्यक्ति तो पाप ही खाता है। इसीलिए यज्ञ, त्याग, कुर्बानी आदि बातें, जिनका आधार शरीर-यज्ञपर ही है, नित्य नियमित रूपसे की जानी चाहिए। ईश्वरके जिस पहले नियमको साथ लेकर आदमी जन्म लेता है, उसका पालन करना महान यज्ञ है।

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥(३,१४)

अन्नसे प्राणी उत्पन्न होते हैं, पर्जन्य (वर्षा) से अन्न पैदा होता है, यज्ञके बिना पर्जन्य नहीं हो सकता और यज्ञ कर्मसे उत्पन्न होता है। यदि हम आलस्यमें पड़े रहें तो वर्षा न हो। इस तरह यज्ञके बिना वर्षा न होनेकी स्थिति उत्पन्न होती है। करने योग्य श्रम किया ही जाना चाहिए। किन्तु लोगोंमें वृक्षादि लगानेकी वृत्ति ही पैदा नहीं होती। जंगलमें बहुत वर्षा होती है, किन्तु उसकी वहाँ उतनी आवश्यकता नहीं होती। उससे तो हानि होती है । किन्तु जब आदमी वहाँ काम करनेके लिए तत्पर हो जाता है तो उसीसे लाभ होने लगता है। चेरापूँजीमें संसारमें सबसे अधिक वर्षा होती है, किन्तु वह वहाँ किस कामकी? (अलबत्ता उसका इतना उपयोग अवश्य है कि उसको दूसरी जगहोंकी वर्षाकी तुलनाका मानदण्ड बना लिया गया है; किन्तु यह एक अलग बात है।)

वृक्ष इत्यादि न हों तो वर्षा हो ही नहीं सकती, विज्ञानशास्त्रियोंका यह नियम यहाँ 'भगवद्गीता' में आ गया।

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गुरुवार, १५ अप्रैल, १९२६

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।( ३,१५)

यह श्लोक तनिक जटिल है। यह समझ लें कि कर्मका उद्भव ब्रह्ममें से और ब्रह्मका उद्भव यज्ञमें से है। बिहारमें प्राप्त 'गीता' की एक व्याख्यामें कर्मका अर्थ ब्रह्म किया गया है और नीचे ब्रह्मका अर्थ दिया है जो वस्तु सारे जगत्‌को उत्पन्न करने- वाली, पोषण करनेवाली, ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरको भी पैदा करनेवाली हो। इसका यह भी अर्थ किया गया है कि हम जिसे ईश्वर और अन्तर्यामीके नामसे पुकारते हैं। और जो सभी सम्प्रदायों और धर्मोका सामान्य तत्त्व है।