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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह ठीक बात है कि ब्रह्मका उद्भव यज्ञमें से हुआ है। जहाँ त्याग है, जहाँ आत्माके द्वारा आत्माको सन्तोष प्राप्त है, जहाँ सबके दुःखमें दुःखी होनेकी बात है और जहाँ सबके प्रति समभावरूपी महायज्ञका आचरण हो रहा है, वहाँ ब्रह्म है ही। किन्तु इस यज्ञ अथवा अन्य सभी यज्ञोंके पीछे यह बात तो है ही कि धर्मका आचरण शरीरको अक्षुण्ण रखकर नहीं हो सकता। शरीरकी रक्षा धर्म नहीं है। शरीरको क्षीण करते-करते ही धर्मका आचरण किया जा रहा हो, तो वही धर्म है। जो मनुष्य अपनी देहको कष्ट नहीं देता वह किसी भी प्रकारका यज्ञ नहीं करता। इसलिए जो मनुष्य संसारके लिए शरीर-श्रम करता है — हिन्दुस्तानके तैंतीस करोड़ लोगों और फिर संसारके अरबों मनुष्यों और उसमें भी समस्त जीव-जन्तुओंकी बात सोचें, तो हम जगतकी तुलनामें अपने शरीरके एक रोमके बराबर भी नहीं हैं, — उसे यह माननेका क्या अधिकार है कि वह सारे जगतके लिए श्रम कर रहा है? मेरा एक-एक बाल उखाड़ लिया जाये तो प्राण ही निकल जायेगा। किन्तु एक बालकी कोई हस्ती नहीं है। अगर हम जगतके विषयमें ध्यानसे सोचें तो जगत हमें अपने में व्याप्त दीखेगा। रोम क्या है और जगत क्या है, यह भाव ही लुप्त हो जाता है और इस तरह व्यक्ति ही सारा संसार बन जाता है। और ऐसा व्यक्ति चौबीसों घंटे अपने शरीरका उपयोग जगतके लिए ही करता है।


ज्ञानादि शब्दोंका उच्चारण हम करते हैं; सो इस देहके होनेके कारण ही। जो अदेह है, उसके लिए ज्ञानका क्या उपयोग? जगतमें सबसे बड़ा ज्ञान है आत्मदर्शन। किन्तु यह तो कल्पना ही है कि बिना देहका भी मनुष्य हो सकता है। इसीलिए जगत मात्र के लिए देहके कष्टों द्वारा आत्मदर्शन और यज्ञकी बात कही गई है। हम सब मजदूर हैं। यदि धनिक भी अपनेको मजदूरोंकी तरह ही मजदूर मानें तो मजदूरोंका बड़ा उपकार हो। उन्हें सन्तोष मिल जाये और वे धनिकोंके साथ ओतप्रोत हो जायें। किन्तु अगर मजदूर ऐसा कहे कि मालिक मैं हूँ तो इससे उसकी हानि है। जिस तरह अंग्रेज जाति हमपर राज्य चला रही है, यदि हम उसी प्रकार स्वराज्य चलानेकी बात सोचें तब तो हम मालिक बन गये। किन्तु हमें तो मालिकी छोड़कर मजदूरकी स्थितिमें पहुँचना है। मजदूरी करते हुए हम उस वस्तुकी ओरसे अलिप्त होकर शून्यवत् बन जायें तो हमारा अन्धेरा समाप्त हो जाये। 'नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्' में यही भाव छिपा हुआ है।

फिर भी श्लोकके प्रारम्भमें जो ब्रह्म शब्द आया है, उसका क्या अर्थ है? ब्रह्मा कौन है, विष्णु कौन है, महेश्वर कौन है? में ऐसा नहीं मानता कि ये सब कोई व्यक्ति हैं। हम ऐसा मानें कि ये सब ईश्वरीय अंश अथवा शक्तियाँ हैं। ये सब पुराणोंके देवता हैं और इन्हें अलग-अलग माना गया है। यह सब सच भी है और झूठ भी। उद्देश्य हमको किसी प्रकार धर्मकी शिक्षा देना था और इसीलिए ये सारी कल्पनाएँ की गई हैं। अन्यथा न तो ब्रह्मा है, न महेश्वर। है केवल ब्रह्म जो न स्त्री है, न पुरुष। किन्तु ईश्वरके विषयमें तो ऐसी कल्पना की गई है कि वह कुछ करता ही नहीं है, इसीलिए कल्पना की गई कि संसारकी उत्पत्ति ब्रह्मामें से हुई। यदि कोई चार