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'गीता-शिक्षण'

मुखवाले ब्रह्माकी कल्पनामें विश्वास करता है और में उसकी इस कल्पनाका नाश करूँ, तो उसे कौन-सा ज्ञान दूंगा? उसकी उक्त मान्यताका खण्डन करके मुझे क्या मिलेगा? यदि वह मुझसे पूछे कि क्या तुम ऐसा मानते हो, तो मैं कहूँगा 'ना'। किन्तु जो साकार — स्वरूपको मानना चाहे, मैं उसे उससे विरक्त नहीं करूँगा। इसलिए मेरी समझमें ब्रह्माका अर्थ हुआ ईश्वरकी क्रिया करनेवाली शक्ति। तिलक महाराजकी 'गीता' में ब्रह्मका अर्थ प्रकृति ही किया गया है। इसलिए मैं कहूँगा कि प्रकृति ही ब्रह्मा है। अन्ततोगत्वा हमें मान्य यही करना है कि हरएक यज्ञसे ईश्वरका साक्षात्कार हो जाता है और जहाँ शरीर-यज्ञ नहीं है, वहाँ ईश्वर भी नहीं है; यद्यपि हमने तो यह माना है कि ईश्वर सब जगह है। हमारा शारीरिक कर्म चलता रहता है और उसीके आधारपर संसार चलता रहता है। अक्षरका अर्थ ईश्वर है, इस विषयमें तो मुझे कोई शंका ही नहीं है।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥(३,१६)

इस तरह प्रवर्तित चक्रका अनुसरण जो व्यक्ति नहीं करता वह व्यक्ति पापयुक्त जीवन जीनेवाला, इन्द्रियाराम व्यक्ति है। वह नाहक ही जी रहा है। वह संसारपर भाररूप होकर जी रहा है। पृथ्वी चौबीसों घंटे सतत घूमती ही रहती है। जो मनुष्य इसपर आलसी बनकर बैठा रह जाता है, वह नाहक जी रहा है। जो यज्ञ करते रहते हैं, कर्म उनके लिए बन्धन नहीं है। जो आलस्यमें डूबा हुआ अपनेको 'अहम् ब्रह्मास्मि' कहता है, 'गीता' उसे अघायु कहती है। इसीलिए नरसी मेहताने कहा है कि मुक्ति त्यागीको नहीं मिलेगी, भोगीको मिलेगी। यहाँ भोगीका अर्थ है जगत-की मजदूरी करनेवाला और त्यागीका अर्थ है आलसियोंका सरदार।

मैंने इस चक्रको चरखा कहा है। मैंने इस युगके लिए इसी महायज्ञकी कल्पना की है। जो इसे चलायेगा वह जियेगा अथवा जीतेगा।

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शुक्रवार, १६ अप्रैल, १९२६

यज्ञका अर्थ हुआ कोई भी पारमार्थिक प्रवृत्ति।[१] जब कोई अपने शरीरका उपयोग जगतके लिए करता है तब वह व्यक्ति पारमार्थिक कार्य करता है। यदि हम ऐसा मानकर अपने शरीरका उपयोग करें कि शरीर जगतका है तो शरीरपर आधिपत्य रखते हुए हम उसे स्वच्छ रखेंगे और उसपर दीमक नहीं चढ़ने देंगे। किन्तु हमें अपने सारे काम ईश्वरार्पण बुद्धिसे करने चाहिए। यदि हम शरीरका उपयोग केवल अभिभावक, रक्षक, अपनेको उसका पालक मानकर करें तो हमें आत्मतृप्ति मिलेगी। जो चौकीदार स्वयंको अपने शरीरका अभिभावक मानकर सेवा करता है, वह यदि ऐसा कहे कि

  1. यहाँ पण्डित नारायण मोरेश्वर खरेने प्रश्न किया था कि यशसे वर्षा किस प्रकार होती है। इसपर गांधीजीने' अन्नाद्भवन्ति भूतानि वाला श्लोक फिरसे समझाया और फिरसे 'यश' शब्दको व्याख्या की।