जबतक मैं यहाँ घूम रहा हूँ तबतक कोई चोर आ ही नहीं सकता, और हमें उसकी इस बातपर भरोसा हो जाये तो हम उस चौकीदारको — इस रामाको[१] मुक्त छोड़ देंगे। इसी तरह [ हमें श्रद्धा रखनी चाहिये कि ] सेवाके विचारसे किये हुए श्रमके फलस्वरूप वर्षा होगी।
यह कविका जवाब है।[२] और ठीक है। 'यज्ञ शब्द 'यज्' अर्थात् पूजनेसे बना है; जो सेवाके द्वारा पूजा करता है, वह ईश्वरको प्रसन्न कर सकता है।
मरुस्थलमें वर्षा करानी हो तो क्या करें। वहाँ वृक्ष लगाये जाने चाहिये। जहाँ वर्षा कराना आवश्यक हो, जहाँ वृक्ष लगाये जायें-और जहाँ बहुत वर्षा होती हो, वहाँ वृक्ष काटे जायें।
सेवा यज्ञके मूलमें रही होगी। उसके बजाय हम लोग शाखाओं और पत्तों में उलझ गये और मानने लगे कि लकड़ी जलायें या घीकी आहुति दें तो यज्ञ सम्पन्न होगा। पूर्वजोंके कालमें पृथ्वीको साफ करनेके लिए लकड़ियाँ काटना और जलाना आवश्यक था। शिष्योंके समित्पाणि होकर जानेका क्या अर्थ है? लकड़ियाँ काटना और जलाना। यही तब यज्ञका स्वरूप हो गया। आज चरखा यज्ञ हो गया। यदि हमें पानी न मिले और दो कोस जाकर पानी लाना पड़े, तो पानी लाना ही यज्ञ हो जायेगा । 'लेबोरारे ऐस्ट ओरारे'[३] 'उद्यम ही पूजा है'। यह वचन भी इस श्लोककी भावनाके साथ मेल खाता है।
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शनिवार, १७ अप्रैल, १९२६
क्या परोपकार-वृत्तिसे किये गये, बुद्धिके उपयोगको यज्ञ नहीं कहा जा सकता। इस श्लोक में यह नहीं कहा गया है कि सभी यज्ञ वर्षाकारक होते हैं। कहा यह है कि यज्ञके बिना वर्षा नहीं होती। किन्तु सभी यज्ञोंसे वर्षा होती हो, सो बात नहीं है। यह उसी प्रकार हुआ, जिस प्रकार सभी प्रकारके खाद्य-पदार्थ प्राणशक्ति उत्पन्न नहीं करते।
कहा जा सकता है कि भौतिकवादके साथ आध्यात्मिक बातका क्या सम्बन्ध है। जो नियम आध्यात्मिक क्षेत्रमें लागू होता है, वही नियम भौतिक दृश्य-क्षेत्रमें भी लागू पड़ता है। देहके सभी नियम आत्माकी उन्नतिके लिए हैं। प्रत्येक भौतिक गतिविधिमें यही दृष्टिकोण प्रधान होना चाहिए। जिस बातसे आत्मदर्शन नहीं होता, उसका त्याग ही कर देना चाहिए। एक बात अवश्य है; जिस तरह सेवाभावसे शरीर श्रम किया जाये तो वर्षा होती है, उसी प्रकार सेवा-वृत्तिसे बुद्धिका उपयोग किया जाये तो उससे जगतका कल्याण होता है।