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'गीता-शिक्षण'

कभी-कभी यज्ञके बावजूद वर्षा नहीं होती, इसे किस तरह समझाया जा सकता है। कार्य अनेक कारणोंकी परम्परासे उत्पन्न होता है। कार्य-कारणकी पूरी परम्पराको हम नहीं देख सकते। यज्ञके सिवाय अन्य सहायक परिस्थितियाँ भी होनी चाहिए। इस विश्वासका कोई कारण नहीं है कि अमुक काम करेंगे तो अमुक फल होगा ही। क्योंकि ऐसे हजारों अन्य कारण हो सकते हैं जिन्होंने पिछली बार परिणाम उत्पन्न करनेमें हाथ बँटाया था।

हर कामका कोई न कोई परिणाम तो होता ही है। पिछले युद्धके अन्तमें जापान में भूकम्प हुआ। क्या इसे ईश्वरीय प्रकोप कह सकते हैं? अभी.... ने[१] जवाबमें यह कहा कि मनुष्यके क्रूर होनेपर प्रकृति भी क्रूर बन जाती है। किन्तु इसमें प्रकृतिके क्रूर होनेकी कोई बात नहीं है। जहाँ केवल न्याय है, उसे क्रूरता कैसे मान सकते हैं? मनुष्य जो कुछ करता है, अहंकारसे करता है; ईश्वर थोड़े ही अहंकारवश होकर कोई काम करता है। उसपर क्रूरताका आरोप करना अपने गजसे ईश्वरको नापना है। ऐसे ही दृष्टिकोणके कारण ज्ञानमें से निरीश्वरवाद निकला। ईश्वरका यदि हम अपने जैसा बना डालें तो काम कैसे चलेगा। दूसरी तरह देखें तो वह कर्त्ता है, क्योंकि वह चेतना देनेवाला है। सतत वही सब कुछ कर रहा है। बिना कानके सुनता है, आँखके बिना देखता है। भूकम्प किसी पापकी सजा है, यह मानना ठीक नहीं है। भूकम्पका होना सजा है, इसका क्या कारण मानें। कोई राष्ट्र पापमें डूबा हुआ हो, और ईश्वर उसे बचा लेना चाहता हो तो पापमें से बचानेकी दृष्टिसे वह भूकम्प भेज सकता है। मैं व्यभिचार करना चाहता हूँ, भयंकर व्यभिचार करना चाहता हूँ और यदि उस क्षण ईश्वर मुझे काटनेके लिए एक साँप इसीलिए भेज देता है कि मैं उस पापसे बच जाऊँ । क्या इसे उसका कोप कहें? उससे तो मेरी रक्षा होगी। नल और करकोटककी बात लो। करकोटकने उससे कहा कि यदि मैं तुम्हें कुरूप न बनाऊँ तो कलयुगमें तुम्हारा नाश हो जायेगा। इसी तरह राजपाटकी प्राप्तिको भी पुण्यका फल नहीं मानना चाहिए। ईश्वरकी लीला अगम्य है। हमें इसके विषयमें सवाल-जवाब करते हुए डरना चाहिए। हम इतना कहकर ही रह जायें कि इस विषय में में कुछ नहीं जानता। अवश्य ही ईश्वरीय नियमको जाना जा सकता है। जाननेका अधिकार है। किन्तु समझदार आदमी अपने लोभको परिमित कर लेता है और आत्म- दर्शनके लिए जितना जानना जरूरी होता है, उतना ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसकी कोई न कोई सीमा तो माननी ही पड़ेगी। वैज्ञानिक अनुसन्धानकर्त्ता भी चेतनाका मूल नहीं खोज सके हैं। मैं यह कल्पना कर सकता हूँ कि आदमी जिस तरह नदियोंको वशमें कर पाया है, उसी प्रकार किसी दिन भूकम्पको भी वश में कर लेगा। किन्तु यह साधारण बात है। आत्माके नियमोंके विषयमें विचार करने बैठें तो भौतिक नियम वहाँ बिलकुल काम नहीं देते, क्योंकि ये तो नाम-रूपसे सम्बद्ध है। आत्माके नियमोंके विषयमें बहुत जाननेका लोभ न करना ही अच्छा है। ईश्वरकी स्तुति करनेके

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  1. साधन-सूत्र में नाम छोड़ दिया गया है।