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'गीता-शिक्षण'

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥(३,२३)

यदि मैं आलस्यको समाप्त किये बिना सम्पूर्ण रूपसे कार्यरत न रहूँ तो लोग भी हर तरह मेरा अनुकरण करने लगेंगे। मुझे तो चौबीसों घंटे यह तन्त्र चलाना है, क्योंकि मैं जगतका तन्त्री हूँ, सूत्रधार हूँ। मैं जगतको नचाता हूँ, इसलिए मेरा नाम नटवर भी है। रात-दिन सोकर अथवा आलस्य में पड़े रहकर संसारका तन्त्री इसका संचालन कैसे कर सकता है?

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्त्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥(३,२४)

यदि मैं काम न करूँ तो इन सब लोकोंका नाश हो जाये। मुझे तो दिन-रात कर्माग्नि प्रज्वलित रखनी चाहिए। न रखूं, तो समाजमें वर्ण-संकरता फैल जाये और मैं लोगोंका नाशकर्त्ता बन जाऊँ। हम ईश्वरको प्रसन्न रखने के लिए काम करते हैं। यदि हम इसे बन्द कर दें तो लोग अनुशासन-हीन हो जायें, आलसी हो जायें और बिलकुल ही परेशान हो जायें।

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥(३,२५)

जिस तरह अज्ञानी लोग काम करते हैं, मुझे भी उसी तरह काम करना चाहिए। अन्तर इतना ही है कि वे आसक्ति-सहित करते हैं। मुझे भी उन्हींकी तरह कुदाली हाथमें लेकर काम करना चाहिए। बुद्धिमान मनुष्यको दूसरोंके बराबर ही उद्योग और परिश्रम करना चाहिए, किन्तु आसक्ति छोड़कर, राग-द्वेष छोड़कर, लोगोंके कल्याण के लिए। (तुम जितना अनासक्तिसे कातोगे, गरीबके लिए कातोगे, तो उससे तुम्हारा और उनका कल्याण होगा) इस तरह काम करते हुए तू ज्ञानी कहलायेगा और कर्मी रहते हुए भी अकर्मी रहेगा। जिसने एकादशीका व्रत रखा है, यदि वह भोजन बनाये तो इसमें पाप थोड़े ही लगेगा। वह तो अनासक्त होकर बालकों और अतिथियोंके लिए भोजन बना रहा है।

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शुक्रवार, २३ अप्रैल, १९२६[१]

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥(३,२६)

विद्वानको अज्ञानी और कर्म में लिप्त लोगों में बुद्धि-भेद उत्पन्न नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए उनसे यह नहीं कहना चाहिए कि जिस तरह किसी वस्तुके बिना

  1. नया श्लोक लेनेके पहले गांधीजीने 'सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो आदिको विनोवाका उदाहरण देकर समझाया और कहा कि वे साधारण किसानकी तरह खेत में काम करते हैं और गीता भी बाँचते हैं।