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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम अपना काम चला रहे हैं, वह भी उसके बिना अपना काम चला ले। ऊपर बताया गया कि यदि मैं समाजके लिए काम न करूँ तो प्रजामें वर्ण संकर हो जायेगा। यही बात यहाँ भी दूसरे शब्दोंमें कही गई। यदि अर्जुन कोई जबरदस्त परिवर्तन कर डाले तो लोग उसे नहीं समझेंगे और कोई उलटा ही काम कर बैठेंगे। इसने तो लाखों मनुष्योंसे युद्धकी तैयारी करके आनेके लिए कहा था। अब यदि वह उनमें बुद्धि-भेद उत्पन्न करे, तो यह कैसे हो सकता है? इसलिए उसे तो अनासक्त रहकर युद्ध अर्थात् अपने धर्मका पालन करते रहकर दूसरोंको वैसा करनेकी प्रेरणा देनी चाहिए।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥(३,२७)

प्रकृति अर्थात् स्वभाव — सत्व, रजस और तमसके द्वारा किये जानेवाले कार्योंके विषयमें मूर्ख मनुष्य अहंकारपूर्वक ऐसा मानता है कि ये काम तो मैं कर रहा हूँ। (आँखकी पलकें गिरती उठती रहती हैं; यदि कोई व्यक्ति ऐसा माने कि मैं उन्हें उठा और गिरा रहा हूँ, तो वह मूर्ख अथवा रोगी है। यदि वह आँखोंको जान-बूझकर गति दे तो वह उन्हें बिगाड़ लेगा।) किन्तु जो व्यक्ति साक्षी रहकर कर्म करता है, उसका कार्य शोभा पायेगा। बिना कुशलताके भी जो मनुष्य अहंकार छोड़कर कर्म करेगा, वह [ कुशल किन्तु ] अहंकारी व्यक्तिकी अपेक्षा अधिक शोभनीय कर्म करेगा। राजा और प्रधानमन्त्रीका उदाहरण लें। प्रधानमन्त्री एक तन्त्र के अनुसार सारा काम करता है। इसी प्रकार हम इस जगतमें यात्री हैं और जगतके नियमोंका पालन करते हुए चलते हैं। यदि हम ऐसा अहंकार करें कि प्रकृतिके अनुसार किये गये अपने आचरणके कर्त्ता हम हैं, तो इससे अज्ञानियोंके मनमें बुद्धि-भेद होगा। हम सब हुक्मके बन्दे हैं, ऐसा समझकर ही हमें चलना चाहिए। हमें स्वेच्छासे गुलाम बन जाना चाहिए। मीराने कच्चे धागेकी बात की। क्योंकि वह प्रकृतिके वशमें होकर आचरण करती थी, उसके द्वारा कच्चे धागे इत्यादि शब्दोंके प्रयोगका कारण यही था कि वह स्वयं बीच में नहीं आना चाहती थी और सब कुछ भगवानके वशमें होकर करती थी। जो व्यक्ति देहका किराया चुकानेकी दृष्टिसे खायेगा, वह स्वादकी दृष्टिसे नहीं खायेगा। इस नियम के अनुसार चलनेवाला व्यक्ति जो कुछ करेगा, अपनेको शून्य बनाकर, सब-कुछ कृष्णार्पण करके करेगा।

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शनिवार, २४ अप्रैल, १९२६

आजका श्लोक थोड़ा अटपटा है और इसका कारण यह है कि इसका बड़ा अनर्थ किया गया है। सन्दर्भको सोचे बिना इसका अर्थ किया जाता है। राजकोटमें एक बहुत ही स्वेच्छाचारी आदमी था। वह अपने स्वच्छन्द आचरणका समर्थन इस श्लोकके आधारपर किया करता था। उसे शास्त्रोंका अभ्यास था और वह प्रसंगानुकूल श्लोकादि पढ़ने में समर्थ था। इसलिए समाजमें उसे प्रतिष्ठाका स्थान दिया जाता था।