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'गीता-शिक्षण'

वह कहता था कि प्रकृति काम करती है, इसमें मेरा क्या दोष। मुझे तो पाप-पुण्य कुछ भी नहीं लगता।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥(३,२८)

गुणों और उनके विभागोंके द्वारा, कर्मों और उनके विभागोंके द्वारा तात्विक मनुष्य इस निर्णयपर पहुँचता है कि गुण गुणोंसे परिचालित हो रहे हैं। वह गुणों और कर्मोंका विभाग करके, पूरी तरह उनका विश्लेषण करके इस तात्विक निष्कर्ष पर पहुँच जाता है, और फिर अपनेको कर्त्ता नहीं मानता। इस प्रकार वह गुणोंकी क्रियाओंमें आसक्त होकर उलझता नहीं है। मैंने जिस पाखण्डी शास्त्रीकी बात कही वह कहा करता था कि प्रकृति तो ईश्वरकी माया है। वह क्या कर रही है, इसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं हूँ। किन्तु अगले श्लोकमें प्रकृतिका जो अर्थ है, यदि उसे समझ लिया जाये, तो फिर व्यक्तिको और कुछ भी न करना पड़े। जिस व्यक्तिने हरएक वस्तुके विषयमें मोह समाप्त कर दिया है, वहीं कह सकता है कि मुझे किसी भी कामसे क्या लेना-देना है। जिस तरह जनक राजाने कहा था। नहीं तो, जो व्यक्ति मोह और प्रमादसे भरपूर है, वह इसका सहारा नहीं ले सकता। इस श्लोकका अर्थ तो यह है कि संसारके इस जबरदस्त काममें — इस जबरदस्त कारखाने में जिसका विचार करते ही सिर घूम जाता है — मेरी बिसात ही क्या है। मैं किस खेतकी मूली हूँ। मैं तो इसके एक पुर्जेको भी नहीं छू सकता। यदि मनुष्य, जगतका चरखा किस तरह चल रहा है, इसका तात्विक निर्णय करे तो देखेगा कि गुण अपने स्वभाव के अनुसार काम करते रहते हैं। चरखेके छोटे-से दृष्टान्तको लें। मान लीजिए कि उसमें तकुएको अहंकार हो गया। चरखेमें उसका एक छोटा-सा स्थान है। उसकी अपनी कोई गति नहीं है। किन्तु यदि वह उसे अपनी ही गति मान ले और यहाँतक समझे कि मालको भी मैं ही गति दे रहा हूँ। तब तो सब खत्म ही हो गया। यदि वह टेढ़ा होकर चलना चाहे तो वह एक अनोखा राग पैदा करने लगेगा। अपनी एक जैसी गतिको वदलकर उसे लगेगा कि में कुछ नया काम कर रहा हूँ। किन्तु थोड़ी ही देरमें वह बेकाम होकर रह जायेगा। मरते-मरते शायद उसे होश आ जाये और वह यह समझ पाये कि यह सब मैंने क्या किया। मेरे अहंकारसे मेरी चेतना भी नष्ट हो गई। अब मानिए कि इस तकुएको अहंकार नहीं है और वह इस तरह सोचता है कि यह गति मेरी नहीं है। जो सूत निकल रहा है उसे निकालने में भी मेरा हाथ नहीं है। माल अपना काम कर रही है। चक्र अपना काम कर रहा है। और तब फिर वह कहे कि 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते' और इसके बाद कहे कि मुझे इससे क्या लेना-देना है, मुझे तो केवल एक करना चाहिए, नहीं तो मेरा और मेरे साथियोंका नाश हो जायेगा, तो वह इस प्रकार सोचनेके कारण निरहंकारी हो जायेगा और फिर वह मोहग्रस्त नहीं होगा। यदि ऐसा हो जाये तो उस तकुएके विषयमें कहा जा सकेगा कि वह ज्ञानी हो गया। यही बात व्यक्तिके विषयमें भी है। वह स्वेच्छाचार करता हुआ यह नहीं कह सकता