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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कि गुण अपना काम कर रहे हैं। यदि हम मिथ्या तुलनाओंमें पड़ेंगे तो हानि होगी। पशु ऐसा करते हैं इसलिए यदि हम कहें कि हम भी पशुओंकी तरह बरताव करेंगे, तो हम पशु बन जायेंगे। मनुष्यको तो यह समझना चाहिए कि मैं मनुष्य हूँ। मुझमें और पशु में एक निश्चित सीमातक साम्य है — सोना, खाना, बैठना, विषयभोग करना इत्यादि। किन्तु जो व्यक्ति यह सोच ले कि मुझे पशुकी तरह खाने-पीनेकी जरूरत नहीं है, कूकरकी तरह रोटीके एक टुकड़ेके लिए लड़ना जरूरी नहीं है, वह तात्विक निर्णयके द्वारा जो आचरण करेगा सो साक्षीके रूपमें ही करेगा। उसकी पाशविक वासनाओंका क्षय भले ही न हुआ हो; फिर भी यदि वह मनुष्यताके नियमोंको समझ जाये तो वह यह भी समझ जायेगा कि मुझे सोये बिना, खाये बिना और विषयोंका भोग किये बिना काम करते रहना चाहिए। वह समझ जायेगा कि पशुओंके नियम मुझपर लागू नहीं होते। वह प्रकृतिके नियमोंको देखकर ही यह कहेगा कि मनुष्यके नियम तो अमुक हैं। शरीरके पिंजरेमें रहते हुए मेरा इतना ही अधिकार है कि मैं इससे अलिप्त रहूँ। फलस्वरूप उसके हाथ अपवित्रताका स्पर्श नहीं करेंगे, आँख अपवित्र दृश्य नहीं देखेगी और वह मनुष्य शरीरके बन्धनसे मुक्त रहेगा। ऐसा व्यक्ति ही कह सकता है कि 'गुणा गुणेषु वर्तन्ते'; आँख देखती है, कान सुनता है इत्यादि। वह तो, हमने तकुएका जो उदाहरण दिया है, उसकी तरह जड़वत् व्यवहार करेगा। उसका शरीर तो जड़वत् हो जायेगा। यदि लक्कड़ व्यभिचार कर सकता है तो शरीर करेगा। स्वभावसे शरीर मरी हुई लाशके जैसा है और लक्कड़की तरह निर्दोष है। जबतक इन्द्रियोंका संचालन करनेवाला मन मलिन नहीं होता इन्द्रियाँ तबतक अपवित्र कार्यके लिए प्रस्तुत नहीं होतीं। जिसने मानव-जीवनके नियमोंको समझ लिया है, वह गुणोंका विश्लेषण करेगा और ऐसा बरताव करेगा जैसा अक्षरोंको व्यवस्थापूर्वक जमाकर मुद्रक करता है। यदि अक्षर घिस गये होंगे तो वह उन्हें फिरसे गलाकर नये अक्षर ढालेगा और बादमें उन्हें क्रमसे रखेगा। 'गुणा गुणेषु' में विश्वास करनेवाला व्यक्ति इसी प्रकार जड़वत् होकर अपने मनसे कुछ न करता हुआ स्वस्थ हो जाता है।

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रविवार, २५ अप्रैल, १९२६

इन्द्रियाँ १६ हजार नहीं, असंख्य हैं। उनके नचाये नाचनेके बदले यदि हम उन्हें नचायें तो उनके सूत्रधार बन जायेंगे। पहले अध्यायमें आसुरी वृत्तिवाला दुर्योधन भी कहता है कि आप सब अपने-अपने स्थानमें रहकर भीष्मकी रक्षा करें। इसी प्रकार हमारे भीतर जो सूत्रधार बैठा हुआ है, यदि हम उसको अक्षुण्ण रखें और उसके चलाये चलें तो उसे नहीं हिलना होगा।

प्रकृतेर्गुण संमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥(३,२९)

यह जगत माया है, चक्र है। इसके कारण जो मोहमें पड़े हैं, वे गुण और कर्मों में लीन रहते हैं। जो प्रकृतिके गुणसे मोहित रहते हैं, वे अनेक इच्छाएँ करते रहते हैं