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'गीता- शिक्षण'

और उन्हें शोक और मोह होता रहता है। न जाननेवाले व्यक्तिको जाननेवाला व्यक्ति चलायमान न करे, उसे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर उठाकर न फेंके। उदाहरणके लिए तू युद्ध के मैदानमें उपस्थित है। तमाम लोग इसमें गुंथे हुए हैं। अब तुझे अचानक कोई ज्ञान हो गया, इसलिए तू दूसरोंको स्थानभ्रष्ट मत कर। मुझे कोई जबरदस्त ज्ञान हो जाये तो भी मैं अन्य सब लोगोंमें तदनुसार तत्काल फेर-फार नहीं कर सकता। जो लोग अपने-अपने कामोंमें लगे हुए हैं, उन्हें उससे एकदम विरक्त कर देना मूर्ख आदमीका काम है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अव्यवस्थित कामको भी व्यवस्थित न किया जाये। यदि कोई ऐसा अर्थ करेगा तो वह इसका उलटा अर्थ निकालना कहलायेगा।

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मंगलवार, २७ अप्रैल, १९२६

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥(३,३०)

यह सब कहने के बाद कि कर्म क्या है, वह किसके लिए किया जाना चाहिए, श्रीकृष्ण कहते हैं कि तू इन सारे कामोंको मेरे ऊपर डालकर अपने मनको स्वच्छ करके उसे अपनी आत्मामें अधिष्ठित करके, इच्छाओंको छोड़कर और उसके विषयमें लाभकी आशा न रखते हुए (मैं यह नहीं कहता कि तू बादमें राजपाट प्राप्त करके उसमें सुख मान) उसके परिणामको सोचे बिना अपना कर्त्तव्य समझकर इसे कर। (चार बजे उठनेसे उत्तम फल होगा, इसका विचार किये बिना कर्त्तव्य समझकर ही उठना चाहिए।) निर्मम होकर, कर्म अथवा कर्मका फल मेरा नहीं है, ऐसा समझकर जड़ सदृश हो जा; चरखेके तकुएकी तरह, दीपककी बाती जैसे जड़-भावसे जलती है, वैसा जड़ होकर काम कर। यदि दीपकका सारा सरंजाम में न जुटाऊँ, तो बत्ती कैसे जल सकती है। बत्ती तो कपासके डोंडेमें थी। उसे क्या मालूम था कि मुझे बत्ती बनना है। उसे हमने बट दिया और बाती बनाया। यदि अर्जुन बातीकी तरह हो जाये, शरीरका नहीं, आत्माका विचार करे तो उसे निर्मम और निराश होना ही पड़ेगा। अच्छे और बुरेमें से अच्छेको पसन्द करके और बादमें फिर दोनोंको छोड़नेसे द्वन्द्वातीत बना जा सकता। शरीर जबतक हमारे पास है, तबतक वह है। और इसीको दृष्टिमें रखकर कर्म करना चाहिए। यदि इस तरह नहीं चलेंगे तो अधोगति होगी। अर्थात् आशा तो अच्छीसे-अच्छी ही रखनी है। यही मोक्षकी इच्छाके बारेमें भी। मनुष्य जलरूप ही हो जाये तो फिर उसके पानीमें कूदनेकी कोई बात ही नहीं उठती। यदि हम पानीमें घुल जानेवाले पदार्थ होते तो भी जलाशयमें न जाना चाहते। प्रस्तुत प्रसंग अर्जुनका ध्येय मोक्ष नहीं है और न वह उसकी इच्छा या आशा ही कर रहा था। यों हमारी वर्तमान स्थिति तो एक आशान्वित आदमीकी ही है, किन्तु कल्पना तो आशय अथवा इच्छासे अलिप्त परिस्थितिकी ही करनी चाहिए। यदि ऐसी दृढ़ता रखें कि हमें मोक्ष तो प्राप्त करना ही है, तो वही हमारी इच्छाहीन मान-