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'गीता- शिक्षण'

धड़से अलग करनेका कर्त्तव्य उसके सामने उपस्थित हो गया। आप कहेंगे कि इसमें अहिंसा कहाँ है? हिंसा सिरको घड़से अलग करनेमें नहीं होती। वह तो मनमें होती है। यदि हरिश्चन्द्रमें तारामतीके बदले अपने मरणको ठीक माननेकी गुंजाइश होती, तो हरिश्चन्द्र अपने गलेके ऊपर छुरी फेर लेता। मान लीजिए कि राजाका यह हुक्म होता कि यदि चाण्डाल अपने सामने उपस्थित व्यक्तिको न मार सके तो वह स्वयं अपनेको मार डाले। उस परिस्थितिमें हरिश्चन्द्र अवश्य ही तारामतीके बजाय अपने ही प्राण लेता। किन्तु कर्त्तव्यके चुनावकी कोई गुंजाइश उसके सामने थी ही नहीं; और इसलिए उसने तो तारामतीपर तलवार चला ही दी थी। यह अलग बात है कि देवताओंने उसका हाथ पकड़ लिया। दूसरा उदाहरण उस डाक्टरका लीजिए जिसे कोई ऑपरेशन करना है। जिस डाक्टरने मेरी शल्य-चिकित्सा की थी, उसका मन तो दयासे भरा हुआ था। यों भी उसके मन में हिंसाकी तो कोई बात हो ही नहीं सकती थी। यदि किसी डाक्टरको रोगीका पाँव काटकर अलग करना पड़े, तो यह उसके लिए कोई आनन्दकी बात नहीं होती। उद्देश्य उसमें बीमारका कल्याण ही है। डाक्टर ही नहीं, जिसका पाँव काटा जा रहा है, वह भी इसमें कल्याण मानता है। इस तरह यद्यपि शल्य-चिकित्सामें छुरी इत्यादिका उपयोग किया जाता है, फिर भी उसमें हिंसा नहीं है।

तीसरा उदाहरण एक आदमीका गला आधा कट गया है और सिर लटक गया है। वह आने-जानेवालोंको संकेत करता है कि भाई मुझे मार डालो तो मैं इस दुःखसे छुटकारा पा जाऊँ। किन्तु लोग बिना परवाह किये चले जाते हैं। कोई एक खड़ा हो जाता है और उसके दुःखको देख-समझकर विचार करता है कि यह मरकर ही बचेगा। अवश्य ही वह उसे दुःखसे त्राण देनेके लिए उसके गलेको काट फेंकेगा। यह भी अहिंसा है। और यह अहिंसा इसलिए है कि यह काम उसने ज्वररहित होकर किया। हम हिन्दुस्तानमें अनेक लोगोंको मार-काटके समर्थनमें तर्क करते हुए देखते हैं। किन्तु यह मिथ्यावाद है। साँपको मारनेवाला भयके कारण उसे मारता है। वह स्वयं मरना नहीं चाहता। सर्पको मारनेके पीछे उद्देश्य सर्पसे बचनेका है। सम्भव है कि इस प्रकारकी हिंसा क्षन्तव्य हो, किन्तु है तो वह हिंसा ही। जगत जिसे दुष्टातिदुष्ट आदमी मानता हो उसको मारनेमें भी हिंसा अवश्य है। (भले ही वह संतव्य हो।) आखिरकार, संसार इससे कोई अधिक निरापद स्थान नहीं हो जाता; और फिर इसके पीछे मारने वालेके मनमें उस व्यक्ति के प्रति कोई कल्याणकी भावना नहीं है। यदि कोई एक व्यक्ति संसारका नाश करनेपर उतारू हो जाये और संसारके लोग उसका नाश करनेके बजाय स्वयं नष्ट हो जाना श्रेयस्कर मानें, तो उस परिस्थिति में उसे जो हिंसा करनी पड़ेगी, सम्भव है उसकी कल्पना करके वह घबरा उठे और फिर संसारमें हिंसाका[१] नाम ही न बच सके।

इस तरह विगतज्वरका अर्थ राग-द्वेषसे विगत अर्थात् रहित हुआ। विगतज्वर होकर हिंसा भी की जा सकती है। किन्तु यदि कोई आत्मवंचना करके अहिंसाका नाम

  1. साधन-सूत्र में 'अहिंसा' छप गया है। स्पष्ट ही यह भूलसे छपा है।