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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लेकर हिंसा करे, तो उसे मुक्ति नहीं मिल सकती। जो अहिंसा समझकर हिंसा करता है, उसके लिए मोक्षकी गुंजाइश थोड़ी-बहुत है, किन्तु अहिंसाकी आड़ लेकर हिंसा करनेवालेके लिए कोई गुंजाइश नहीं है।

इस तरह कहा कि 'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य'। इसी तरह अनेक मर्यादाओं में बँधकर युद्ध करनेके लिए कहा गया।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।(३,३१)

जो व्यक्ति सदा मेरे इस अभिप्रायका अनुसरण करता है, श्रद्धाभाव रखकर और राग-द्वेषसे रहित होकर काम करता हुआ भी वह कर्मोंसे मुक्त हो जाता है। कर्त्तव्य-कर्मो को करना ही युद्ध करना है। कर्म-मात्रमें चुनाव तो करना ही पड़ता है। अर्थात् कर्म-मात्र संघर्ष है। यदि तू सब कुछ कृष्णार्पण कर देगा, राग-द्वेषरहित होकर कर्म करेगा और उन कामोंको श्रद्धाके साथ भगवानको सौंप देगा, तो इस द्वन्द्वमें पड़ने पर भी तू द्वंद्वातीत कहलायेगा। सब कुछ भगवानके ऊपर डाल देगा तो तुझे पाप-पुण्य नहीं छुएँगे। भगवान माँकी तरह निर्विकार भावसे वामनके रूपमें हमारे पास आता है और भीख माँगता है कि मुझे सब कुछ सौंप दो। जो व्यक्ति सारे राग-द्वेष छोड़कर किसीका पक्षपात किये बिना मेरे मतके अनुसार चलता है, वह कर्म-मात्रसे छुटकारा पा जाता है।

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गुरुवार, २९ अप्रैल, १९२६

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।(३,३२)

जो कर्त्तव्य-कर्म नहीं करते, दोषयुक्त और पापयुक्त आचरण करते हैं, चक्रका अनुसरण नहीं करते, वे बिलकुल मूढ़ हैं, नाशको प्राप्त हो चुके हैं और उन्होंने अपनी चेतना खो दी है।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥(३,३३)

जो मनुष्य ज्ञानवान है, वह भी अपनी प्रकृति और अपने स्वभावके अनुकूल होकर आचरण करता है। भूत-मात्र स्वभावका अनुकरण करनेवाले होते हैं। ऐसी परिस्थितिमें व्यक्तिका निग्रह किस कामका?

इस श्लोकका ऐसा अर्थ भी किया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति दुष्ट ही है तो वह कदापि नहीं सुधर सकता है।....[१]भी इसीका उदाहरण हमारे सामने रख रही है। यह लड़की हमसे दूर वहाँ पड़ी हुई है। हम उसे किस तरह सुधारें। स्वभाव तो

  1. साधन-सूत्र में नाम छोड़ दिया गया है।