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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वहाँ असहयोग ही करना पड़ता है। तुलसीदासने दुष्टके साथ असह्कारकी बात की है। [१]

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शुक्रवार, ३० अप्रैल, १९२६

मनुष्यने अपने अभिमानमें ऐसा माना कि में किसीको कैद कर सकता हूँ, और उसपर अपना अंकुश रख सकता हूँ। किन्तु हम देखते ही हैं कि चोरी और खून आदि नहीं मिटे। ऐसी अवस्थामें व्यक्ति क्या करे? उसे स्वयं अपनी ओर देखना चाहिए। इस श्लोकका यह अर्थ तो निकल ही नहीं सकता कि व्यक्ति अपना भी निग्रह न करे। क्योंकि यह तो हम देख ही चुके हैं कि 'तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत् मत्परः'। इन्द्रियाँ इतनी बलवान हैं कि वे हमें मथ डालती हैं। उनको संयमित करने — उनपर क्रोधित होकर डंडे से उन्हें पीटने में, घोड़ेकी तरह लगाम लगाकर रखने में और चाबुक जमाने में — हिंसाकी कोई बात नहीं है। [ श्रीकृष्ण कहते हैं, ] जो व्यक्ति मेरा ध्यान रखकर स्थिरभावसे इन्द्रियोंको वशमें रखता है वह समाधिस्थ है। इसके आगे वे फिर कहते हैं 'तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।

निग्रहका अर्थ होता है किसी अन्य व्यक्तिका हमें बलपूर्वक अनुशासित रखना। यदि यह बात अर्जुनको उद्देश्य करके कही गई हो तो इसका यह अर्थ होगा कि यदि तू ऐसा मानता हो कि तू अपनी सेनापर निग्रह रख सकेगा तो सेना तेरे निग्रहको माननेवाली नहीं है। क्योंकि उसका मन तेरे साथ नहीं है, लड़ाईके साथ है। तू युद्धसे पराङ्मुख होकर सेनाको वर्णसंकर और चरित्रभ्रष्ट बना देगा।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यायें रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेतो ह्यस्य परिपन्यिनौ॥(३,३४)

और राग-द्वेषका यह जोड़ा सदा एक-दूसरेका साथ देता है। इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थोके विषयमें राग-द्वेषमें पड़ी हुई ही होती हैं। इस राग और द्वेषके वशमें नहीं आना चाहिए, क्योंकि ये हमारे रास्तेमें बैठे हुए चोर हैं। हम कहीं भी जायें, ये हमारी सारी कमाई लूट ले जानेकी ताकमें हमारे पीछे-पीछे फिरते हैं। इस तरह व्यक्ति के लिए प्रयत्नका तो पूरा-पूरा अवकाश है। इतना ही नहीं, प्रयत्न उसका धर्म है। भरपूर प्रयत्न कर चुकनेके बाद भी सफलता न मिले तो उक्त श्लोकका ध्यान आ सकता है और अथक प्रयत्न करनेके बाद मनमें यह भी आ सकता है कि अब आगे किन्तु है यह वृत्ति निरर्थक। प्रयत्न तो सतत चलते ही रहना पड़नेतक प्रयत्न करना ही है और उस समय भी यह आशा रखनी है कि प्रयत्न सफल होगा। जो स्त्री, पुरुष अथवा बालक ऊपरके श्लोककी आड़ लेकर हाथपर हाथ धरकर बैठ जायेंगे वे ईश्वरके निकट चोर ठहरेंगे। "वे चल ही नहीं सकते; चाहिए। टूटकर गिर

  1. अभिप्राय कदाचित् 'दुष्ट संग जनि देहि विधाता' से है। इसमें दुष्टसे सम्बन्ध न रखनेकी बात सूचित होती है।