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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

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रविवार, २ मई, १९२६

भला मनुष्यको जबरदस्ती उलटे मार्गपर क्यों खींचा जाता है?

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्ययेनमिह वैरिणम्॥(३,३७)

श्रीकृष्णने कहा कि इसका उत्तर सीधा है। बालक स्कूल जानेसे इनकार करता है। क्या कारण है कि उसकी वहाँ जानेकी इच्छा नहीं होती? वह वहाँ नहीं जाना चाहता, क्योंकि वह किसी भगोड़े बच्चे के साथ खेलता रहना चाहता है अथवा कोई उपद्रव करनेका विचार कर रहा है। इसमें पहला काम प्रेरक है और उलटा काम करनेकी जो बात है, वह कुविचार है। एक अन्य तत्त्व है क्रोध। काम्य वस्तु न मिलने-पर क्रोध होता है। क्रोधकी उत्पत्ति रजोगुणसे है। इस तरह मनुष्यसे ये दो बड़े शत्रु पाप करवाते हैं। काम और रामका शासन एक-दूसरेसे बिलकुल अलग-अलग है। जो व्यक्ति 'रामअमलमें [ नशेमें ] राता माता' होगा, वही ईश्वरकी लीला समझेगा और जो काम और क्रोधमें डूबा रहेगा वह रामकी लीला नहीं देख सकेगा। उसे शैतानकी लीला दिखाई पड़ेगी। काम तो कुम्भकरणकी तरह मुँह खोले शिकार निगलनेके लिए बैठा ही है। जब उसकी तृप्ति नहीं होती तो वह क्रोधसे भर जाता है। अर्जुनसे श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने इस बैरीको समझ। ये दोनों एक ही हैं। इसलिए दोनोंके लिए एक-वचन 'एनम्' शब्दका उपयोग किया।

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥(३,३८)

जैसे धुएँसे अग्नि ढँक जाती है, अथवा मैलसे दर्पण ढँक जाता है, अथवा जैसे गर्भके ऊपर झिल्ली चढ़ जाती है वैसे ही इनसे ज्ञानपर परदा पड़ जाता है। धुआँ तो थोड़ी ही देरका होता है। वह उड़ा कि अग्नि पूरी तरह प्रज्वलित हुई। दर्पणके ऊपर लगे हुए मैलको साफ करना पड़ता है, तभी वह काम देता है। अलबत्ता इतना मालूम हो कि वह दर्पण है। और झिल्लीमें छुपा हुआ गर्भ स्वयं तो कुछ कर ही नहीं सकता। वह तो रो भी नहीं सकता। काम और क्रोधसे व्याप्त मनुष्यकी ये तीन स्थितियाँ होती हैं।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥(३,३९)

इस तरह मनुष्यके-ज्ञानीके - ज्ञानके इस नित्य शत्रुसे ज्ञान ढँका हुआ है। यह शत्रु कैसा है? यह कामरूप अग्नि दुष्पूर है। कभी तृप्त नहीं होती। यह काम ज्ञानीका भी शत्रु है।