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'गीता-शिक्षण'

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मंगलवार, ४ मई, १९२६

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥(३,४०)

हमारे भीतर जो कामरूपी शत्रु निवास करता है उसका अधिष्ठान दस इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि है और इन्हींके द्वारा यह काम देहीके ज्ञानको ढाँककर उसे मोहग्रस्त कर देता है।

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥(३,४१)

इसलिए हे अर्जुन, पहले इन्द्रियोंका नियमन करके इस पापीको भस्म कर। क्योंकि यह शत्रु ज्ञान और विज्ञान अर्थात् शास्त्र इत्यादि बाँचनेके बाद उत्पन्न हुए अनुभवों आदिको भी नष्ट कर देता है।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धः परतस्तु सः॥(३,४२)

अब पृथक्करण करते हैं। यह बात तो सच है कि इन्द्रियाँ बलवान हैं — वे शरीरको पछाड़ देती हैं। मन उनसे बलवान है और मनसे बलवान है बुद्धि। बुद्धिसे भी बढ़कर है शरीरमें स्थित आत्मा। इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि ये तीनों काम और क्रोधके अधिष्ठान हैं। किन्तु इन सबसे बढ़कर तो तू स्वयं है। जहाँ शत्रु छुपा हुआ बैठा है, यदि हम उस स्थानपर कब्जा कर लें तो हम शत्रुका वध करनेमें समर्थ हो जायेंगे, अथवा फिर वह शत्रु उस जगहको छोड़कर भाग जायेगा। सम्भव है कभी-कभी हम सबके स्वामी परमात्माको बिलकुल भूल जायें। किन्तु इसकी कोई चिन्ता नहीं क्योंकि जिस क्षण हमें उसका स्मरण होगा हम इन सबको जीत ले सकते हैं।

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।(३,४३)

हे महाबाहो, आत्माके द्वारा आत्माको जीतकर इस कामरूपी शत्रुका नियमन करके और यह समझकर कि यह बुद्धिसे भी सूक्ष्म वस्तु है, इसे पराजित कर। "आत्माके द्वारा आत्माको जीतकर" का अर्थ यह हुआ कि मनमें जो नीची वृत्तियाँ — आसुरी वृत्तियाँ पड़ी हुई हैं, उन्हें आत्माके द्वारा अर्थात् दैवी वृत्तिके द्वारा वशमें कर। दूसरे शब्दोंमें स्वार्थको परमार्थके द्वारा वशमें करके अपनी बुद्धिसे यह समझकर कि तू स्वयं ही सब कुछ है, इस किलेपर फतह पा। इन्द्रियाँ द्वारपाल हैं, मन प्रधान है। उसके पास इन्द्रियाँ जो समाचार लाती हैं, वह समाचार मन बुद्धिके पास ले जाता है और बुद्धि हुकम देती है। किन्तु यदि हमें अपना स्वामित्व अपने