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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हाथमें रखना हो तो पहले मन, बुद्धि और इन्द्रियोंको जिन्हें हमने अपना स्वामी बना रखा है, जीतना होगा। जिस तरह हिन्दुस्तानमें विदेशियोंको हम स्वामी समझकर बैठे हुए हैं और ऐसा मानते हैं कि हम उन्हींका दिया खाते हैं।

आत्माको चौबीसों घंटे जाग्रत रहना है। जिसकी आत्मा हर घड़ी जाग्रत रहती है, उसे स्वप्न भी नहीं आते। किन्तु यदि हम नींदके दास बन जायें, तो स्वप्न आयेंगे ही। इस तरह कृष्ण अर्जुनको अभय-दान देते हैं कि यदि तू निरन्तर सतर्क रहेगा तो फिर उस परिस्थितिमें भीतर अथवा बाहरका कोई भी चोर उपद्रव नहीं कर सकेगा। जबतक हम अपने शरीरपर सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त नहीं कर लेते, तबतक जो हम नहीं चाहते, ऐसी वस्तु भी शरीर माँगता है और हम अपना स्वत्व खो देते हैं।

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बुधवार, ५ मई, १९२६

यदि हम दुष्टसे-दुष्ट व्यक्तिके साथ भी योग्य व्यवहार करना चाहें, तो हमें यह मानकर चलना चाहिए कि उसका इरादा बुरा नहीं है; हृदयके भीतर कहीं उसकी भावना अच्छी होनी ही चाहिए। आत्माका गुण क्रोध करना इत्यादि नहीं है। उसका गुण तो अलिप्त रहना है। थोड़े अथवा अधिक अंशमें क्रोध और कामको न जीत पानेकी अवस्थामें हमें चाहिए कि यदि वे हमपर आक्रमण करें तो हम उन्हें वरदाश्त कर लें।

चोरके प्रति हमारा धर्म क्या हो, इस बातका अभीतक कोई नियम नहीं बनाया जा सका है। किन्तु हमें इतना तो याद रखना ही चाहिए कि चोरके प्रति हमारा धर्म प्रेम रखनेका है। उसे प्रेमसे किस तरह जीता जा सकता है यह जानना हमारा कर्त्तव्य है। हमें मान लेना चाहिए कि चोरी करना मनुष्यका स्वभाव नहीं है। बुद्धिके आधारपर भी हमें इतना भरोसा रखना चाहिए कि संसारमें ऐसा कोई है ही नहीं कि जो कभी-न-कभी सुधर न सकता हो। प्रेममें एक आकर्षण होता है। विज्ञान कहता है कि धूलमें भी आकर्षण शक्ति है। धूलके प्रत्येक कणमें एक तरहकी आकर्षण-शक्ति पड़ी हुई है। इसीलिए मीराबाईने प्रेमके वन्धनकी बात की। कच्चे धागेकी अपेक्षा प्रेमका यह बन्धन अधिक बड़ा है। हम अपनी कोई चीज खो देनेपर आवेश अथवा क्रोधमें क्यों आ जायें?

तीसरे अध्यायमें यह योग बताया गया। कार्य तो निरन्तर होते रहते हैं। पृथ्वीका यह गोला गोल-गोल घूमता ही रहता है। इसी तरह शरीरको भी निरन्तर चलाते रहनेके सिवाय कोई गति नहीं है। प्रश्न उठता है कि तब हम कर्म-बन्धनसे किस तरह छुटें। 'गीता' का उत्तर है कि राग-द्वेष न रखें तो कर्म-बन्धन बाधक नहीं होता।