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'गीता-शिक्षण'

अध्याय ४

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥(४,१)

यह सुन्दर अव्यय योग मैंने पहले विवस्वानको बताया था। उसने मनुको बताया और मनुने इक्ष्वाकुको।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप॥(४,२)

राजर्षिगण परम्परासे चलते आनेवाला यह योग जानते थे। कालके प्रभावसे यह नष्ट हो गया है। कृष्ण कहते हैं, कर्म तो हम करते ही रहते हैं। ईश्वरने हमें इस कर्म — चक्रपर बिठाल दिया है और वह कुम्हारकी तरह हमें घुमा रहा है और नये-नये घड़े तैयार करता जा रहा है। यह प्राचीन कालसे चला आ रहा है, किन्तु वर्तमान कालमें नष्ट हो गया है। आदमी राग-द्वेष रहित होकर कार्य करना भूल गया है। नहीं तो हमें इस युद्धका साक्षी ही न होना पड़ता।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥(४,३)

मैंने आज वही पुरातन योग तुझे बताया, क्योंकि तू मेरा भक्त है, मेरा मित्र है; और यह रहस्य उत्तम है।

उत्तम वस्तु भक्तको दी जाती है, क्योंकि वह उसका उपयोग जगत्के कल्याण-की दृष्टिसे करेगा।

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गुरुवार, ६ मई, १९२६

कृष्णने अर्जुनसे कहा कि यह प्राचीन योग है। विवस्वानने मनुको और उसने इक्ष्वाकुको बताया था। मैंने इसे पहले विवस्वानको, इसलिए अर्जुन पूछता है कि हम तो आजके युगके हैं और फिर भी आपने ही इसे सबसे पहले कहा, यह विसंगत जान पड़ता है।

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥(४,४)

हम लोगोंका जन्म आजका है। तब फिर यह बात कि फलेच्छारहित कर्म करना चाहिए, आपने ही सर्वप्रथम कही, सो कैसे सम्भव है।