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सम्पूर्ण गांधी वांग्मय

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप॥(४,५)

मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं और तेरे भी अनेक जन्म हो चुके हैं। मैं इन सबको जानता हूँ, तू नहीं जानता।

जब हम चौरासी लाख योनियोंकी बात करते हैं; तब फिर पहले अनेक जन्मोंके ग्रहण करने की बात उसमें आ ही जाती है। हम बुद्धिके सहारे यह भी कहते हैं कि मरण पुराने घरसे एक नये घरमें जाने जैसा है। किन्तु यह बात निश्चयपूर्वक तो वही व्यक्ति कह सकता है जिसे पूर्वजन्मका स्मरण हो। श्रीकृष्णने यहाँ स्पष्ट ही यह कहा है कि स्वयं योगी होनेके कारण उन्हें अपने पूर्वजन्मकी याद है। अर्जुनको नहीं है। कृष्णको ऐसा कहना शोभा देता है, हमें नहीं।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।(४,६)

मेरे लिए जन्म नहीं है। मुझमें जो आत्मतत्त्व है वह अनादि और अजन्मा है। ऐसा होते हुए भी और प्राणिमात्रका ईश्वर होते हुए भी मैं अपनी प्रकृतिका अवलम्बन लेकर आत्माकी मायाके सहारे उत्पन्न होता हूँ अर्थात् अवतार लेता हूँ।

हिन्दू धर्म में अवतारोंका क्या स्थान है, इसे लेकर हमें कठिनाईका अनुभव हो सकता है। अवतारका अर्थ नीचे आना है। हम नीचे आये तो ईश्वर भी नीचे आया। ईश्वर वस्तु मात्र में है, यह सब ईश्वरकी माया है। हम जिन वस्तुओंको छू सकते हैं — देह और अन्य पार्थिव वस्तुएँ, वे सब एक ही स्थानपर और एक ही कालमें हैं। किन्तु आत्मा तो अज है, वह प्रत्येक स्थान और प्रत्येक कालमें है। हमें इसका अनुभव नहीं होता। हमें यदि केवल बुद्धि अथवा श्रद्धाके बलपर ईश्वर-तत्त्वको जानना हो तो हमें आत्माका ज्ञान होना चाहिए। यह आत्मा क्या वस्तु है। जबतक हम अज्ञानमें हैं तबतक वह आकाशसे भी अधिक दूरीपर है; और ज्ञान प्राप्त हो जाने-पर, कहा जा सकता है कि वह हमसे एक इंचकी दूरीपर भी नहीं है। इसीसे हम जन्मे हैं और इसीके लिए हम जीवित हैं। अन्य सभी कुछ 'तू' है, यदि ऐसा मानें तो 'मैं ही तू है, और तू ही में हूँ।' किन्तु यह तो अहंकारशून्य होनेपर ही जा सकता है। अन्ततोगत्वा अँगूठी और गलेका हार दोनों ही स्वर्ण हैं; नाम और रूप तो क्षण-भरके लिए हैं। नाम और रूप मृगजल हैं। किन्तु इनका नाश हो जानेपर जो तत्त्व बच रहता है, वह एक ही है।

इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अजन्मा होते हुए भी, जीवोंका स्वामी होते हुए भी अवतार लेता हूँ। आत्माका तो यही स्वभाव है। यदि हमें इस सत्यकी अनुभूति हो जाये, तो हमारा आचरण आत्माके स्वभावके अनुसार ही हुआ करे। जन्म लेनेपर भी, जन्म नहीं लिया है, हम इस प्रकारका आचरण करें। यदि आत्मा मात्र एक है। तो एक आत्माके जन्म लेनेका अर्थ सभी आत्माओंका जन्म लेना हो गया। और यदि अन्य सब आत्माओंने जन्म ले लिया तो एक आत्माने ही जन्म लिया—यह समझमें