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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पड़े रहोगे तो मैं बर्दाश्त कर लूंगा; क्योंकि उसमें से तो तुम स्वयं निकल आओगे। इसी तरह थोड़े-बहुत झगड़ते रहोगे तो बर्दाश्त कर लूंगा और उसको मिटानेके लिए अवतार नहीं लूंगा। परन्तु यदि हम सारी मर्यादा छोड़कर लड़ें, मन्दिरोंको तोड़ें, अमर्यादित प्राण-हानि करें, तो कहा जायेगा कि धर्मकी ग्लानि हो गई। यह तो धर्मके नामपर अन्याय होगा। उपद्रव और अधर्मका बढ़ना कहलायेगा। ईश्वर ऐसे समय मनुष्यसे कहता है कि तुम निराश न बनो। यह भी ठीक है कि तुम कुछ भी नहीं कर सकते। लाचारीकी इस भावनाकी प्रतीतिके द्वारा मैं तुम्हारे गर्वका पूरा हरण कर लूँगा। सूरदासने कहा कि मैं नाच-नाचकर थक गया हूँ, अब मुझे बचाओ।[१] इसी तरह जब मनुष्य गर्वमें भरकर यह कहता है कि 'मैं इसे करूँगा, मैं इसे करूँगा' तब भगवान उसके अभिमानका हरण करते हैं। तिसपर भी भगवानने मानवको इतना अभिवचन दे रखा है। ऐसा नहीं है कि यदि तुम नहीं करोगे, तो अमुक काम पड़ा ही रह जायेगा। मानना यह चाहिए कि मुझसे नहीं बना तो इसे ईश्वर करेगा। इसीलिए ईश्वरने कहा कि जब जरूरत पड़ती है, तब मैं पृथ्वीपर आता हूँ। ईश्वर आकर सब ठीक कर लेता है। काम न हो तो ईश्वरकी लाज जाती है। जो व्यक्ति उसका गुलाम होकर बैठ गया है, काम न हो तो उसकी लाज कैसे जायेगी। गुलाम जो कुछ पहनता-ओढ़ता है, उसपर से परीक्षा तो उसके मालिककी ही होती हैं। इसलिए ईश्वर धर्मकी ग्लानि कैसे होने देगा? अधर्मका उपद्रव चलता ही चला जाये तो उससे ईश्वरकी लाज जाती है, इसलिए उसको तो आना ही पड़ेगा। परित्राणाय

साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥(४,८)

सज्जनोंका रक्षण करनेके लिए, दुष्टोंका विनाश करनेके लिए और धर्मकी संस्थापना के निमित्त में समय-समयपर जन्म लेता हूँ — अवतार लेता हूँ। ईश्वरने हमें बताया है कि तू तो कुछ करता ही नहीं है; मैं भी कुछ नहीं करता। तब फिर दुष्टोंका विनाश कौन करता है और किस प्रकार उनका नाश होता है।

ईश्वरका अनिवार्य नियम है कि कर्म निष्फल नहीं जाता। आदमीका निष्काम भावनासे कर्म करना एक बात है और कर्मका निष्फल न जाना दूसरी बात है। कर्मका फल न भोगना पड़ता हो, ऐसा नहीं है। किन्तु यदि व्यक्ति तटस्थ रहे तो कर्म भोगते हुए भी वह उसे नहीं भोगता। तथापि फल तो भोगना ही पड़ता है। कर्म माफ किये ही नहीं जाते। इस तरह दुष्टकी दुष्टता ही उसके विनाशका कारण है। जगत् में एक मारता है, दूसरा मरता है, यह तो निमित्त-मात्र है। अर्जुन धनुर्धर और शूरवीर था। उसने लोगोंका संहार किया, किन्तु ऐसा नहीं है कि अर्जुनके बलने दुर्योधनको मारा हो। दुर्योधन तो अपने पापसे ही मरा। इसीलिए कहावत प्रचलित है कि पापका घड़ा फूटे बिना नहीं रहता। ईश्वर ऊपरसे नीचे आकर मारकाट कर देता है तो वह हमारे जैसा ही मूर्ख हुआ। किन्तु बात ऐसी नहीं है।

  1. इंगित — अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल' वाले पदकी ओर है। सूर सागर