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'गीता-शिक्षण'

यदि हम आशावादी बनें और ईश्वरके नियमको समझें, तो समझ जायेंगे कि दुष्टों का नाश उनके अपने पापसे ही होगा।

दुष्टोंके नाशका अर्थ दुष्टोंके शरीरका नाश भी नहीं है। शरीर तो जैसे दुष्टोंके वैसे अच्छोंके भी नष्ट होंगे। कोई भक्त होते हुए भी जवानीमें मर जाता है। और दुष्ट छिहत्तर वर्षका होकर मरता है। इसलिए क्या हम ऐसा कहेंगे कि इसमें ईश्वरका अन्याय है। केसर भक्तको काले साँपने काट लिया और वह मर गया। इसलिए क्या हम यह मानेंगे कि वह दुष्ट था। केसर भक्त तो साधु था । वह एक निरक्षर मजदूर होते हुए भी भक्त था; प्रामाणिक था। किसीकी अकाल मृत्यु हो जाये और इसीसे हम उसे दुष्ट मानें तो इससे हम नीचे गिरेंगे।

अलबत्ता सज्जन पुरुष एक दृष्टिसे मरता ही नहीं है। क्योंकि हम उसके गुण- गान तो निरन्तर करते ही रहते हैं। रामकी गाथा सभी गाते हैं। रावणकी कथा कोई नहीं गाता। हम रावणको याद करते ही हैं, तो इस दृष्टिसे कि उसके दोष छोड़ें, उन दोषोंसे दूर भागें। किन्तु गुणोंके तो हम गीत गाते हैं, उन्हें आत्मसात् करते हैं, अपने भीतर उतारते चले जाते हैं। इस तरह गुणोंकी तो वृद्धि ही होती रहती है। गुण तो अमर हैं। परिस्थिति जगतमें इससे उलटी दिखाई देती है; किन्तु यह ईश्वरकी माया है। गुण प्रयत्न करनेसे बढ़ते हैं और अवगुण बिना प्रयत्नके बढ़ते हैं, यह सच है। किन्तु अन्ततोगत्वा अवगुणोंका नाश और गुणोंकी वृद्धि ही सिद्ध है। इससे जो उलटा दृष्टिगोचर होता है, वह माया है। यदि परिस्थिति ऐसी न हो तो 'विनाशाय च दुष्कृताम्' वचन मिथ्या हो जायेंगे।

ऊपर नाशसे आशय शरीर नाश नहीं है। अन्त समयतक मनमें रहनेवाली वासना के कारण व्यक्ति फिर जन्म लेता है। साधु पुरुषके लिए जन्म नहीं है, ऐसा कहा अवश्य; किन्तु यह तभी जब साधु गुणातीत हो जाये। अच्छे और बुरे गुणोंसे परे, गुणरहित एक स्थिति है। यह खराब स्थिति नहीं है, अच्छी स्थिति है, मोक्षकी स्थिति है, सदा बनी रहनेवाली स्थिति है। किन्तु ईश्वरने यहाँ जो कहा है सो यह कहा है कि साधुताका नाश होता ही नहीं है। नाश दुष्टताका होता है और अवश्य होता है। जब ऐसा जान पड़ता है कि दुष्टता जगत-भरमें व्याप्त हो गई मैं अन्तर्यामी प्रकट होकर यह दिखाता हूँ कि नहीं; बात ऐसी नहीं है। 'दिखाता हूँ' का अर्थ है स्वयं क्रियाके द्वारा पदार्थ-पाठ प्रस्तुत करता हूँ। जगतमें जब दुष्टता व्याप्त हो जाती है, तब ईश्वर मनुष्यको प्रेरणा देता है कि थोड़ा-बहुत अच्छा होनेसे काम नहीं चलेगा, तपश्चर्याके द्वारा तुम्हें बहुत अच्छा होना पड़ेगा। इतना अच्छा होना पड़ेगा कि तुम ईश्वरके पूर्ण अंश कहला सको। श्रीकृष्ण इसी तरह पूर्णावतार कहलाये। यहाँ ईश्वरने मनुष्यको आश्वस्त किया है कि जब धर्मकी ग्लानि होती है और अधर्म बढ़ जाता है, तब में जन्म लेकर साधुओंकी रक्षा करता हूँ, दुष्टोंका नाश करता हूँ और धर्मकी संस्थापना करता हूँ। इसका अर्थ यह हुआ कि धर्मका नाश ही नहीं होता। किन्तु यह नहीं कहा है कि दुष्टोंका नाश हो जाता है और अन्योंका अर्थात् साधुओंका नाश नहीं होता। श्रीकृष्ण भगवान स्वयं चले गये; यहाँ तक कि उनकी अकाल मृत्यु हुई।