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'गीता-शिक्षण'

ईश्वरने अपना नियम बना दिया और संसारका शासन नियमके हाथमें छोड़ दिया। इसमें परिवर्तन या कुछ घटाने-बढ़ानेका अधिकार अपने हाथमें ही नहीं रखा और बादमें लोगोंसे कहा कि अब तुम्हें जन्म लेना हो तो लो, न लेना हो तो मत लो। मानो उसने आदमीके साथ पहले ही इस तरह साफ बातचीत कर ली थी। यदि हम ईश्वरकी आराधना करते हैं तो वह प्रसन्न होता है। किन्तु यदि आराधना न करें, तो वह क्रोधमें आकर नियम बदल दे, ऐसा नहीं है। नियम तो अटल है। ईश्वर कोई शासनकर्त्ता नहीं है। यद्यपि ईश्वर शब्दका अर्थ शासनकर्त्ता होता है। किन्तु ईश्वर कर्त्ता नहीं है, इसलिए भर्त्ता भी नहीं है। यह कर्म नहीं करता और कर्मके फल भी नहीं भोगता। वह अलिप्त बना रहता है। हमने कल्पनाएँ दौड़ाकर ईश्वरको अनेक विशेषण दे डाले हैं और हम हक-नाहकके झगड़े करते रहते हैं, जैसे जैन और वेदान्तदर्शन। एक कहता है कि सब-कुछ ईश्वरमय है, दूसरा कहता है कि ईश्वर जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। प्राकृत मनुष्यके लिए शोभनीय तीसरा ही रास्ता हमें स्वीकार करना चाहिए और कहना चाहिए कि ईश्वर है और नहीं है। नियम तो चेतन है। इस नियमको ही हम ईश्वर कहें, इसे ही ईश्वरके रूपमें पहचानें तो फिर कोई झगड़ा नहीं बचता। यही इस श्लोकका निष्कर्ष है।

'जैसा करोगे, वैसा भरोगे'; आदमीके कायदेमें भी यह बात है। जो चोरी करता है, उसे दण्ड दिया जाता है। चोरी करनेवालेका भी यह कायदा है, इतना तो मानना ही पड़ता है। वह कायदेकी गिरफ्त में आ जानेपर उसका विद्रोह नहीं करता। विद्रोही नियमोंको मानता ही नहीं है। हत्यारा हत्या करके सजा भोगे तो वह विद्रोही नहीं है। जब हम नियमका सविनय भंग करते हैं, तो विद्रोह करते हैं, क्योंकि नियमका यह भंग हम विश्वासपूर्वक करते हैं। नियमका सविनय भंग यदि विश्वासपूर्वक किया गया हो तो वह विद्रोह है। किन्तु जो मनुष्य लाचार होकर चोरी करता है, वह कायदेको तो मानता है। इसी प्रकार आदमी भी ईश्वरके नियमसे अनुशासित है, फिर वह इच्छापूर्वक उसके सामने झुके अथवा न झुके। यहाँ यही शाश्वत बात कही गई है।

कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।(४,१२)

कामनाका फल मिलता ही है। जबतक कामना है, तबतक जन्म-मरणका चक्र चलता ही रहेगा। सिद्धिका प्रयत्न किया जाये तो उसका भी फल मिलेगा। किन्तु ऐसा नहीं है कि यह फल जैसा शास्त्रोंमें वर्णित है, वैसा ही मिले। जरूरी नहीं है कि शास्त्रमें किसी मन्त्रके जापका जो फल कहा गया है, वही फल उस मन्त्रके जापसे मिले। मनुष्य प्रयत्न करके ईश्वरके नियमको जानना चाहता है और इस तरह 'अमुक काम करो तो अमुक फल मिलेगा', ऐसे किसी निर्णयपर पहुँच जाता है। यदि ठीक निर्णयपर पहुँचा हो तो सम्भव है कि अमुक मन्त्रके जापके फलकी बात सच निकल जाये। यों पाखण्डी भी मन्त्रोंका उपयोग करते हैं। अथवा यह भी सम्भव है कि मन्त्रको सिद्ध करनेकी क्रिया ठीक-ठीक न की गई हो और योग्य फल न मिले। मैं सर्पके मन्त्रोंके बारेमें कुछ नहीं जानता; किन्तु हो सकता है इस बात में कोई सार