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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो। कुछ लोग कहते हैं कि इन बातोंके पीछे जो नियम है उनके बारेमें हमारा ज्ञान बिलकुल ही अधूरा है। कुछ लोग कहते हैं कि कदाचित् अभी इन बातोंकी शोध नहीं की गई है। अभी दृश्य जगत्के नियम खोजे जा रहे हैं। किन्तु अदृश्य जगतके नियम अकल्पनीय हैं। जो अकल्पनीय हैं, उसे कौन खोज सकता है! अदृश्य जगतके भी नियम तो हैं। अदृश्य जगतके इन नियमोंकी, मनकी शक्तियोंकी खोज हो ही रही है। मन्त्रोंकी उत्पत्ति इसी शक्तिसे हुई है। किन्तु जिस तरह दृश्य जगतके विषय में स्थिर किये हुए नियम सच भी निकलते हैं और झूठे भी, इसी प्रकार इनका फल भी कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता।

यह सब देखकर 'गीता' के गायकने हमारे सामने यह बात रखी कि तुम इस जंजालमें पड़ते ही किसलिए हो। सम्भव है कि इससे कोई तात्कालिक फल मिल जाये। इसलिए कहा कि जो जगतकी ही सिद्धियोंकी अभिलाषा करता है, वह अनेक देवताओंका पूजन करता है। किन्तु इससे अन्ततोगत्वा लाभ बहुत थोड़ा ही है। इससे जगतके सुखका परिमाण नहीं बढ़ता। किन्तु यदि तुम निष्काम होकर कर्म करोगे तो मन्त्रोंके जंजालसे छूट जाओगे, और तुम्हें अनेक शास्त्रोंके अध्ययनकी भी आवश्यकता नहीं रहेगी। एक छोटा-सा शास्त्र ही पर्याप्त होगा और वह है ईश्वरकी भक्ति — रामनाम। 'गीता' भी बहुत नहीं पढ़नी पड़ेगी, इसका दोहन ही पर्याप्त हो जायेगा। ईश्वरके तन्त्रमें, जगतमें हमें जो जगह दी गई है, हमें वही खोज निकालनी चाहिए। जो व्यक्ति कामना-रहित, इच्छारहित हो जाता है, उसका काम कैसा सुन्दर होता है। हम अनेक प्रकारकी इच्छाओंको लेकर ही दुःखी होते रहते हैं। जगतमें व्यक्ति अपने-अपने स्थानपर नहीं रहते, इसीलिए संसारमें उथल-पुथल मचती रहती है। जो व्यक्ति अपने काममें तत्पर रहनेके बदले असन्तुष्ट रहता है, उसने जगतके तन्त्र में अपनेको ठीक नहीं बैठाया है। कुटुम्बमें भी यदि सब असन्तुष्ट रहने लगें तो कुटुम्ब अव्यवस्थित हो जाता है। राज्य भी अव्यवस्थित हो जाता है। यदि संसारकी व्यवस्थामें सभी कर्मके फलकी इच्छा करने लगें और कर्म बदलते रहें तो जगत अव्यवस्थित हो जाये। यह वैसी ही बात है, जैसे कोई भोगी आदमी बाजीकरण औषधियों और गोलियोंके लिए भटकता फिरता है। मानसिक भोगोंकी इच्छा करके हम जगत- भरमें भटकते रहते हैं । जबतक अहंकार है, तबतक आत्म-ज्ञान रूपी अमृत नहीं मिल सकता। इसलिए 'गीता' कहती है कि 'मैं-मैं' कहना छोड़कर प्राप्त कार्यको कुशलताके साथ करनेवाले चक्रवर्ती और पाखाना साफ करनेवालेकी कीमत ईश्वरके दरबारमें बराबर ही है। जनक राजा और उसके भंगी दोनोंका स्थान उस दरबारमें एक ही है। यदि जनक राजाका भंगी और आजका कोई राजा ईश्वरके दरबारमें एक साथ पहुँचे, तो सम्भव है, उस भंगीको सुन्दर पद मिले और यह राजा रह जाये। ईश्वरके दरबारमें शीष के मुकुटयुक्त और नंगे होनेसे ऊँच-नीचका हिसाब नहीं होता। जिसका सिर अनावरित है वह मुकुटके योग्य गिना जायेगा और जिसके सिरपर मणिजटित मुकुट रखा हुआ है उसकी कोई गिनती ही नहीं होगी। इसलिए 'गीता'ने कहा है कि अहंकार रखे बिना जिसने कर्म किया, उसने सब कुछ किया और वह मोक्षके योग्य हो गया।