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'गीता-शिक्षण'

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मंगलवार, ११ मई, १९२६

चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥(४,१३)

गुण और कर्मोंके विभाग करके मैंने चार वर्ण उत्पन्न किये हैं। चार वर्ण हुए. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मण कैसा होना चाहिए? ब्राह्मणके गुण क्या हैं? ब्राह्मणकी विशेषता क्या होनी चाहिए? जो ब्रह्मको जानता है, जिसे ईश्वरकी अधिक- से अधिक पहचान है, वह ब्राह्मण है। और ब्राह्मणका कर्म यह है कि लोगोंको बोध दे, ईश्वरके दर्शन कराये। अपने इन विशेष गुणोंके अतिरिक्त अन्य वर्णोंमें जो गुण होते हैं, वे तो उसमें होते ही हैं। क्षत्रियका विशेष धर्म है प्रजा-पालन। क्षत्रियको शूरवीर तो होना ही चाहिए। वैश्य व्यापार करता है, यह उसका विशेष धर्म हुआ। यदि वह व्यापार न करे तो कदाचित् दुनियाका काम न चले। सेवा शूद्रका विशेष धर्म है। अपनी सेवामें यदि वह थोड़ा यज्ञभाव अर्थात् परोपकार भी दाखिल कर ले तो उसका काम पूरा हो जाता है। उच्चता और नीचता जैसी कोई चीज है ही नहीं। यदि हम ऐसा भेद करें कि पाखाना साफ करनेवाला नीचा और 'गीता' पढ़नेवाला ऊँचा, तो हमारा नाश हो जायेगा। जगतमें बड़ी संख्या तो सेवा करनेवालोंकी ही होगी। यदि सेवामें मनुष्य यज्ञकी भावना उत्पन्न कर ले तो वह मुमुक्षु हो गया। कहा है कि शूद्रमें नम्रता होनी चाहिए। नम्रताका अर्थ नीचता अथवा दीनता नहीं है। उसे जगतमें सिवाय ईश्वरके किसी औरकी चाकरी नहीं करनी है।

जिस मनुष्यके लिए कर्त्तव्य शेष बचे हैं, उसमें धन-ऋण तो होता ही रहता है। ईश्वर निरंजन, निराकार है। उसे न सोना है, न खाना है, न पीना है। वह हलचल भी नहीं करता, किन्तु फिर भी सब कुछ करनेवाला वही है। विज्ञानशास्त्री कहते हैं कि तापमानमें परिवर्तन होनेके कारण तूफान उठता है। किन्तु यदि वह कारणोंका भी कारण खोजता हुआ चला जाये, तो उसे कहीं जाकर रुक जाना पड़ेगा। ईश्वर विधि-शास्त्री भी है, क्योंकि सारे कायदे वही बनाता है। किन्तु वह सम्पूर्ण है, इसलिए उसे कुछ करना नहीं पड़ता। उसे अपना कायदा भी नहीं तोड़ना पड़ता। वह सभी वस्तुओंमें ओतप्रोत है, इसलिए ईश्वरका कायदा ही ईश्वर बन जाता है। ईश्वर चेतन मय है, इसलिए कायदा ही चेतन है, वही परमेश्वर है। वह कर्त्ता है और कर्त्ता नहीं है। जगत कुछ नियमोंके अनुसार चलता है, इसलिए ऐसा मान लो कि ईश्वर व्यवस्थापक है। उसने कह दिया है कि कर्त्ता होते हुए भी मैं अकर्त्ता हूँ। यही उसकी अलौकिकता है।

'न मां कर्माणि लिम्पन्ति'— कर्मका फल मुझे नहीं व्यापता, क्योंकि मुझे कर्मके फलकी इच्छा नहीं है। एक बार यन्त्रको गति दे दी गई कि उसके सब पुर्जे अपने-आप चलते रहते हैं। जब हम यन्त्रवत् काम करना सीख जाते हैं, तब मनुष्यके पुरुषार्थका वास्तविक अन्त हो जाता है। उस समय हमें ईश्वरके साक्षात्कारकी योग्यता प्राप्त हो जाती है।