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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

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बुधवार, १२ मई, १९२६

ईश्वर यन्त्रकी तरह काम करता है। अपना नियम भी स्वयं वही है। कायदा बनानेवाला और उसे चलानेवाला भी वही है। यह एक कितनी बड़ी सुव्यवस्था हुई। ईश्वरको नियम तोड़ने अथवा चलानेकी इच्छा भी नहीं होती। यह तन्त्र अनादि कालसे चलता आ रहा है और यदि ईश्वरके विषयमें 'हुआ' शब्दका उपयोग किया जा सके, तो जबसे ईश्वर हुआ है, तबसे कायदा हुआ है और चल रहा है। ईश्वरके विषयमें इस स्थितिकी कल्पना भी हमारी कल्पना है। उसे कभी कर्म स्पर्श नहीं कर सकता, क्योंकि उसे किसी भी कर्मकी इच्छा नहीं है। यन्त्रके जितने पुर्जे होते हैं, वे सब निरन्तर काम करते ही रहते हैं। यन्त्रके पीछे खड़ा हुआ व्यक्ति यन्त्रका संचालन करता है। यहाँ इतनी कल्पना और की गई है कि यन्त्र और यन्त्रको चलानेवाला दोनों ही स्वयं ईश्वर है। क्या यन्त्रके विषयमें कोई यह कह सकता है कि यंत्रको कर्मका स्पर्श अथवा फल प्राप्त होता है? यन्त्रकी सार्थकता तो चलते रहनेमें ही है। इसी तरह हम अपने कामके विषयमें तन्मय हो जायें, कार्य ही कर्त्ता है, ऐसे बन जायें और तदाकार हो लें। किन्तु कर्त्तव्य क्या है, यह समझ लिया जाना चाहिए। विषयी व्यक्ति विषयमें तदाकार हो जाता है। इतना तदाकार कि वह विषय-मूर्ति बन जाता है। उसको भान कराना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे तदाकार हमें नहीं बनना है। हमारा लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार करना है। उस दिशामें तदाकार होना चाहिए। ऐसे व्यक्तिमें विकारोंका उत्पन्न होना असम्भव हो जाता है और अन्तमें वह ईश्वर हो जाता है। ईश्वरके विषय में तदाकार बनें, यन्त्ररूप बनें, ईश्वरके हाथमें माटीके पिण्ड-रूप बनें, तो ईश्वर बन जायेंगे; इसमें आश्चर्य क्या है। ईश्वरके साथ इतने तदाकार हो जाना चाहिये कि कोई भेद ही न रहे। यह कैसे हो सकता है, यह यहाँ बताया गया। इसीलिए कहा है कि कर्म मुझे स्पर्श नहीं कर सकते, क्योंकि मुझे कर्मकी इच्छा नहीं है।

'इति माम् योऽभिजानाति' जो मुझे इस तरह जानता है, वह कर्म में नहीं बँधता। किसलिए बँधेगा? जो ईश्वरीय नियमको समझता है, वह कर्म करता हुआ भी कोई इच्छा नहीं रखता। हम थक जाते हैं, किसलिए? क्योंकि जब हम काम करते हैं तब हमारा 'मैं' बचा रह जाता है। यदि ऐसा न हो तो उतावली अथवा चिन्ता न हो। हमें इस तरह काम करना चाहिए कि काम बन्द कब करना है, इसका होश न रहे। इस तरह यन्त्रवत् काम करना चाहिए। मैंने किसी शक्तिशाली व्यक्तिका बनाया हुआ एक सुन्दर चित्र किसी रोमन कैथोलिक चर्च में देखा था। प्रार्थनाका समय है। स्त्रियाँ खेतमें काम कर रही हैं, हाथमें कुदाली इत्यादि औजार हैं; कि काम करते-करते प्रार्थना-का घंटा सुनाई पड़ता है और एक स्त्रीके हाथसे कुदाली छूट जाती है। शरीर प्रार्थनाके भावमें झुक जाता है और वह प्रार्थनामें लीन हो जाती है। कविने, चित्रकार भी कवि ही है, कल्पना की है कि वह स्त्री यन्त्रवत् काम कर रही थी; काम करना उसके लिए प्रार्थनास्वरूप ही था। जिसने यह भावना दृढ़ कर ली, उसका