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'गीता-शिक्षण'

शरीर प्रार्थनाकी घड़ीमें अपने-आप झुक जायेगा। चार बजे उठनेका संकल्प किया हो तो व्यक्ति चार बजते ही अपना बिछौना छोड़कर उठ खड़ा होगा। भक्तको प्रार्थनाके समय प्रार्थना न करनेपर क्लान्तिका अनुभव होगा, पीड़ा होगी, दूसरा कोई काम नहीं सूझेगा। जो इस हदतक कर्त्तव्य-परायण होकर काम करता है, क्या उसे कर्म स्पर्श कर सकता है? अभिप्राय यह है कि ऐसा व्यक्ति कभी थकता नहीं और सदा ताजाका-ताजा बना रहता है। ऐसे कितने ही लोग होते हैं जिन्हें काम किये बिना चैन ही नहीं पड़ती। उन्हें आलस्यमें पड़ा रहना अच्छा ही नहीं लगता। कोई आ जाये और काममें बाधा पड़ जाये तो वे परेशान हो जाते हैं। ऐसे लोगोंको कर्मका स्पर्श नहीं हो सकता। विषयी व्यक्ति विषयोंमें तदाकार हो जाता है किन्तु उसे थकावट आती है, क्योंकि वह आनन्द लेनेके लिए उत्सुक है। जो आनन्द लेनेकी इच्छा करेगा वह थकेगा ही। जो स्वादके लिए खाता है, वह बीमार पड़ता ही है। रोगोंके उपद्रव उसे घेरते ही हैं। जिसे स्वाद न लेना हो, जो उसके लिए न खाता हो, रोगका उपद्रव उसके लिए कैसे हो सकता है? रस लिये बिना कर्त्तव्य कर्म किया जाये; कामको कर्त्तव्य मानकर ही किया जाये। जो इस तरह काम करेगा, जिसमें कामना नाम मात्रको भी नहीं होगी, उसे कर्मका स्पर्श नहीं होगा। ईश्वर इतना बड़ा तन्त्र चलाता है, फिर भी उसे कर्म-स्पर्श नहीं है। स्पर्शकी निशानी है खाना-पीना और शरीरका क्षीण होना। ईश्वर निरन्तर जाग्रत् रहता है। हमारे लिए जागृति भी है, नींद भी हैं, भूख भी है, खाना भी है। किन्तु ईश्वर निरन्तर जागता हुआ भी जागता नहीं है, सोता नहीं है, खाता नहीं है। ईश्वर कर्त्ता होते हुए भी अकर्त्ता है। हमारे कर्त्तृत्वमें कुछ-न-कुछ अभिमान, अहंकार, संकल्प शेष रह जाता है। हम काम शुरू करते हुए संकल्प करते हैं, करना पड़ता है। ईश्वर चौबीसों घंटे लगातार जागता रह सकता है। हमारी स्थिति ऐसी नहीं है। फिर भी यदि इस स्थितिको आदर्शकी तरह सामने रखें तो काम उत्तमसे- उत्तम हो सकता है। इसलिए कहा: 'योगः कर्मसु कौशलम्' अर्थात् योगारूढ़ व्यक्तिका काम मारधाड़ करनेवालेकी अपेक्षा अच्छा ही होता है।

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वः पूर्वतरं कृतम्॥(४,१५)

पहलेके मुमुक्षुओंने इस तरह ज्ञानपूर्वक काम किया है। ईश्वरका साक्षात्कार करना अर्थात् ईश्वरकी भाँति काम करना; एक निष्ठासे निरन्तर जाग्रत् रहकर काम करना। मनुष्य शरीरमें रहते हुए जितना बने, उतना ईश्वरका अनुकरण करना। पूर्वजोंने इसी तरह किया। तू भी उसी तरह कर। मनुष्य संकल्पोंसे बना है। ईश्वरको संकल्प नहीं करना पड़ता। यहाँ न सोनेका संकल्प कर लेना चाहिए।[१] यहाँ सोकर मुझे दुःख नहीं पहुँचाया जाना चाहिए। अर्जुनको स्वजनोंका वध करते समय धर्मकी बात सूझी, यह किसलिए? अर्जुनसे कहा गया कि ऐसा सूझना ही नहीं चाहिए, क्योंकि पूर्वजोंने कर्मके फलकी इच्छा रखे बिना कर्म किया है। ऐसा करनेसे कर्मका बन्धन नहीं होता।

३२-१३

  1. यहां श्रोताओं में से किसीको ऊँघते देख कर कहा गया था।