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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मेरी ओर देख, मैंने चातुर्वर्ण रचे, फिर भी मुझे बन्धन नहीं है, क्योंकि मैं तटस्थ हूँ। उसी तरह तुझे भी करना है।

तुम विद्यार्थियोंको भी पहलेके ब्रह्मचारियोंकी तरह निष्ठावान् बनना चाहिए। ये ब्रह्मचारी तो ऐसे थे कि बालक होते हुए भी प्रौढ़ों-जैसे जान पड़ते थे। चालीस वर्षसे कुछ अधिक पहलेकी बात है। फिर भी मुझे बराबर याद है कि जब हमारे यहाँका पुरोहित कहीं चला जाता था तो उसका छोटा-सा लड़का 'भागवत' की कथा करा देता था और सो भी बहुत अच्छी तरह। उसे घरमें ऐसा शिक्षण प्राप्त हो चुका था। वह लगभग चौदह-पन्द्रह सालका रहा होगा। पहलेके ब्रह्मचारी ऐसे ही होते थे। आजके नामधारी ब्रह्मचारियोंको भी वैसा बनना चाहिए। लाठीकी तरह सीधा बैठना चाहिए; पूरे महीने भर बराबर प्रार्थना करनी चाहिए, तब प्रगति समझमें आयेगी। यहाँ बैठकर भी मनमें उतावली बनी रहे, यह किसलिए? यहाँसे जानेके बाद फिरसे बिस्तर में जा सोयें तो क्या बनेगा। श्रीकृष्ण कहते हैं: कर्म कर और शेष मुझे सौंप दे। तू करता ही क्या है? करनेवाला तो मैं हूँ। तू तो सोता ही रहेगा। तेरे हाथसे तो दुराचार ही होगा। दुराचार अथवा नींदकी प्रेरणा मैंने थोड़े ही दी है? मैं तो अच्छी ही प्रेरणा देता हूँ। जो सोनेकी, गाली बकनेको, निष्ठा न रखनेकी अथवा कातनेकी आड़में छल-कपट करनेकी प्रेरणा करता है, वह खल ही है।

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गुरुवार, १३ मई, १९२६

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥(४,१६)

कर्म क्या है, अकर्म क्या है, इस विषयमें कवि भी भ्रममें पड़ गये हैं। मैं यह कर्म तुझे बताऊँगा। उसे जानकर तू अशुभमें से, जन्म-मरणके जालसे छुटकारा पा जायेगा।

घानीका बैल आँखोंपर पट्टी बाँधे रहता है। इसी प्रकार हमारी आँखोंपर भी पट्टी बँधी है। हमारी आँखोंपर यह पट्टी हमेशा नहीं थी। किन्तु हमने अभ्यास करके इसे आँखोंपर जड़ लिया है। जैसे डरते रहो तो डर पक्का हो जाता है। कोई एक सिंह शावक बकरियोंमें रहा, इसलिए वह बकरियोंकी तरह डरपोक बन गया। बादमें एक सिंह मिला। उसने उसे दर्पण दिखाया। शावकने अपना स्वरूप पहचाना और सिंहकी तरह गर्जन किया और बकरियोंके समुदायसे उसे छुटकारा मिल गया। उसने अपनी आँखोंपर पट्टी स्वयं नहीं बाँधी थी। यह पट्टी धीरे-धीरे चढ़ गई थी। इसी तरह हमारी आँखोंपर भी अज्ञान रूपी पट्टी पड़ जाती है, इसलिए समझमें नहीं आता कि अशुभमें रहना, चक्रमें घूमते रहना, यह हमारा धर्म नहीं है। हमारा धर्म तो निरन्तर उन्नति करते रहकर, परम-शान्तिका लाभ करना है। जहाँतक हमें पहुँचना है, वहाँतक पहुँचे बिना हमें शान्ति नहीं मिल सकती। वहाँ पहुँचनेपर ही शान्ति मिल जाती