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'गीता-शिक्षण'

है। यह मोक्षकी शान्ति है। हिमालयके शिखरपर पहुँच जायें तो भी वहाँसे आगे-पीछे नीचे उतरना ही पड़ेगा। स्वयं हिमालयके शिखरको भी किसी-न-किसी दिन नीचे आना है। इसमें परिवर्तन तो होता ही रहता है, और इसलिए यह भी किसी दिन टूटकर नीचे आये बिना नहीं रहेगा। किन्तु मोक्षमें फेरफार अथवा पतनकी कोई बात नहीं है। जन्म-मरणके बन्धनका नाश, जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाना, अशुभ में से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। सद्गुरु मिल जाये, और वह आँखोंसे अज्ञानरूपी पट्टी खोलकर ज्ञान रूपी दर्पण दिखाये तो हमारा स्वरूप कैसा है, हम चक्र में पड़े रहनेके पात्र हैं या किसी और वस्तुके योग्य हैं, यह समझमें आ जायेगा। हम जान जायेंगे कि हम इस संसार-चक्रमें भ्रमित होने योग्य नहीं हैं। हमारा पद इससे ऊँचा है। किन्तु जब अन्धकारका नाश होगा, तभी हम इसे समझने योग्य बनेंगे। भगवानने कहा कि में ऐसा उपाय बताऊँगा जिससे तू अशुभ में से छूट जाये। श्रीकृष्णकी अर्जुनको इस बन्धनसे छुड़वाने की इच्छा है। किन्तु यदि अर्जुनने जिज्ञासा न प्रकट की होती, ऐसी आतुरता न दिखाई होती कि में मूढ़ हूँ, मुझे कर्त्तव्यका भान नहीं है, मुझमें श्रद्धा है, मुझे धर्म बताओ तो इसके अभाव में श्रीकृष्ण उसे क्या बताते।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥(४,१७)

जानना यह चाहिए कि कर्म क्या है। विकर्म अर्थात् निषिद्ध कर्म क्या है और अकर्म अर्थात् अशान्ति क्या है।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्॥(४,१८)

जो कर्ममें अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है वह बुद्धिमान, योगी, अखिल कमका कर्त्ता है।

यहाँ सिद्ध यह करना है कि व्यक्ति कर्म करता हुआ भी अकर्त्ता बना रह सकता है। मैं पहले दृष्टान्त देकर समझा चुका हूँ कि यदि मैं ममत्व रखता हुआ कर्म करूँ तो पागल ही हो जाऊँ। किन्तु मैं जो कुछ करता हूँ, कर्त्तव्य समझकर करता हूँ, इसलिए निर्वाह हो जाता है। आश्रमका एक-एक बालक मुझे छोड़ दे, तो भी मेरी आँखसे एक बूंद आँसू न गिरे, बल्कि नरसिंह मेहताकी तरह नाचूं कि भला हुआ, छूटा जंजाल'। इतने उदासीन रहकर काम करें तो जैसा भगवानने कहा, वैसा कहा जा सकता है कि मैं चातुर्वर्णको उत्पन्न करके भी अकर्त्ता हूँ। कर्म करते हुए भी अकर्मवान् रहनेकी बात ऐसी अवस्थामें लागू होती है।

हम इस चक्रमें पड़े हैं। इस तन्त्रमें रहकर हमें निरन्तर काम करना है। जितनी देर जाग्रत अवस्थामें हैं, उतनी देरतक तो सारे प्राप्त कर्त्तव्योंको करना ही है। यह सब इस तरह करना चाहिए कि देखनेमें जो आदमी जल्दी-जल्दी कर रहा है, वह वास्तव में उतावला होनेके बजाय शान्त हो। रहटका बैल चलता ही रहता है, किन्तु रहटका एक भी घट टूटता फूटता नहीं है। अगर हमारा हृदय इन घटोंकी जगह