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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हो तो उसमें उथल-पुथल मचे बिना न रहे। किन्तु ये घट शान्त बने रहते हैं। हमारे मनोंमें ऐसी ही शान्ति होनी चाहिए। यदि हृदयमें हलचल मच जानेके कारण हम काम छोड़कर बैठ जायें तो वह अकर्म नहीं होगा, कर्म ही होगा। ऐसे अकर्मका बन्धन तो बहुत सख्त होता है और ऐसे व्यक्तिके भाग्यमें खराबी ही बदी रहती है। यदि ऐसा व्यक्ति यह मानता हो कि जो कर्मके प्रपंचमें पड़ा हुआ है, वह कर्मके बन्धनमें बँधा है और मैं मुक्त हूँ, तो यह उसका भ्रम है; क्योंकि विचार मात्र कर्म है। इसीलिए कहा गया कि कर्मकी गति गहन है। जो विचारोंमें कर्म करता है, वह उनकी इतनी बड़ी गठरी बाँध लेता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। इसके विपरीत जो कर्मोंमें डूबकर उन्हें कर्त्तव्य मानकर करता है और शेष सब कुछ मुझपर छोड़कर शान्त होकर बैठ जाता है, कर्म-बन्धन उसे नहीं बाँधता।

कल रात...[१] आदि लड़कोंको मैंने उलाहना दिया तो....[२] मुझसे कहा कि आपके स्वरमें तीव्रता आ जाती है; यह तो क्रोध ही हुआ न? मैंने बताया कि मैं कोई ईश्वर थोड़े ही हूँ। मैं तो प्रयत्न कर रहा हूँ। गुरु होनेकी मेरी योग्यता नहीं है। मुझमें इच्छाएँ शेष हैं, इसलिए मैं क्रोधित हो जाता हूँ और मेरा स्वर तीव्र हो जाता है। यदि मैंने राग-मात्रका त्याग कर दिया होता, तो मेरा स्वर सदा एक-सा ही रहता और काममें भी कोई कमी न होती। में ऐसी स्थिति पाना चाहता हूँ। यह सच है कि कभी-कभी मेरे स्वरमें थोड़ी तीव्रता आ जाती है और भौंहों में भी थोड़ा बल पड़ जाता है। यह तो वही बात हुई जो अर्जुनने भगवानसे पूछी है, अर्थात् यह कि मनुष्य अपनी इच्छा के विरुद्ध भी विकारके वशीभूत क्यों हो जाता है। मेरे भीतर काम और क्रोध शेष हैं। मैं यह सब कहकर यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि हम जिस हदतक कर्मोके फलकी आशा रखे बिना कर्म करेंगे, उस हदतक कर्म सधेगा। मैं कायर होकर बैठ रहूँ अथवा....[३] कहना न माने तो दुःखी हो जाऊँ, अथवा क्रोध प्रदर्शित करूँ तो वह कर्मके बन्धनमें बँधना है। मैंने एक कर्तव्य स्वीकार किया, आश्रम में बच्चे रखे, उनके विकासकी जिम्मेदारी ली, तो फिर इससे भागना कैसे हो सकता है? यदि मैं हिमालयके शिखरपर बैठकर शान्ति-लाभ करूँ, तो वह इन्द्रियाराम होकर कर्म-बन्धनमें बँधना होगा। इसलिए मेरा यह करते रहना ही उचित है। मुझे इसीको मोक्षका साधन बनाना है। क्रोधरहित, मोहरहित, एकदम जाग्रत, अतंद्रित हो जाऊँ तो कर्म करता हुआ भी मैं अकर्मी हूँ। इनमें से दोनों ही व्याख्याएँ प्राप्त हो रही हैं। कर्म करते हुए भी अकर्मी और अकर्मको योग्य मानते हुए भी कर्मके बन्धनको स्वीकार करनेवाला।

सबको अपने ऊपर ऐसी कसौटी लागू करनी चाहिए। मुझे बिलकुल भूल जाना चाहिए। मैं अपनी बात इसलिए कर रहा हूँ कि हम सब अधूरे हैं। मैं अपनी बात विवेक अथवा लोकाचारकी दृष्टिसे नहीं करता, तटस्थ भावसे करता हूँ और कहता हूँ कि मैं अपूर्ण हूँ। यह कोई विवेकपूर्ण कथन नहीं है, बिलकुल सच बात है।

  1. १,
  2. २,
  3. साधन-सूत्र में यहाँ नाम नहीं दिये हैं।