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'गीता-शिक्षण'

जब मुझमें राग-द्वेष नहीं बचेंगे, तब तुम मुझे शान्त देखोगे, अधिक शान्त पाओगे। मैं इसके लिए प्रयत्न कर रहा हूँ। में इस शान्तिका लाभ कर सकूंगा, ऐसा लगता है।

इस युगमें अपना माप करनेका हमारे पास कोई साधन नहीं है। किन्तु 'गीता' हमारे सामने है। 'गीता' कहती है कि यन्त्रकी तरह काम करो और उस काममें चेतनको व्याप्त कर दो।

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रविवार, २३ मई, १९२६

'कर्मण्यकर्म यः पश्येत्' वाले श्लोकके पहले चरणका अधिक विचार करना चाहिए। पिछले श्लोकमें हमने देखा कि कोई भी व्यक्ति क्षण-भर कर्म किये बिना नहीं रह सकता। अर्थात् जीनेकी क्रिया भी कर्म है। खाना, बोलना, सोचना, सोना, ये सब कर्म ही हैं। ( शान्ति प्राप्त करने गये, तब उन्होंने विचारतकको रोकनेका प्रयत्न किया, ऐसा वे कहते थे। क्योंकि विचार करना भी कर्म ही है।) कर्म किये बिना कोई रह नहीं सकता, फिर भी कर्म और अकर्म में भेद बतलाया गया है। योगी और सामान्य मनुष्यका भेद दिखाया गया। रात और दिनके भेदको स्पष्ट किया और कहा कि शरीरकी जो क्रियाएँ अपने-आप होती हैं, वे सब अकर्म हैं। अर्थात् यह सब कर्म तो हैं किन्तु उनके बन्धनमें नहीं बँधता। में यहाँ 'भगवद्गीता' का विवेचन किया करता हूँ। इसमें उद्देश्य है कि बालक इसे समझें और तदनुसार आचरण करें। इसलिए यह विवेचन कर्म अवश्य ही है। यदि मैंने शिक्षकके कामको कर्तव्यकी तरह अपनाया हो, और 'गीता' का यह शिक्षण देना मेरे लिए एकदम स्वाभाविक हो जाये, तो इसीको सामान्य रूपसे कदाचित् अकर्म कह सकते हैं। फिर भी युक्लिडकी सरल रेखा सम्बन्धी व्याख्याकी तरह यह एक आदर्श ही होगा—अर्थात् यह कामचलाऊ अकर्म कहलायेगा। जो कर्म परोपकारकी दृष्टिसे, पारमार्थिक दृष्टिसे किया जाता है, वह काम-चलाऊ अकर्म कहा जा सकता है। खाने और श्वास लेनेकी क्रिया पारमार्थिक दृष्टिसे हो रही है, यह तभी कहा जा सकता है जब हमने अपनी सम्पूर्ण देहको ज्ञानपूर्वक कृष्णार्पण कर दिया हो। यदि हम ऐसा मानकर आचरण करें कि यह देह हमारा नहीं है, इसे ईश्वर अपनी इच्छाके अनुसार नचा रहा है, तब तो ईश्वरका साक्षात्कार ही हो गया। ऐसी दृष्टिसे किये हुए सभी कर्म अकर्म हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे अकर्म होते हुए भी कर्म हैं। योगीने विचारोंके घोड़े दौड़ाने बंद कर दिये हों तभी उसकी समाधि कर्मरूप हो सकती है। सम्भव है उसने समाधि अपने स्वास्थ्यकी दृष्टिसे लगाई हो। क्षय-रोगी भी प्राणायाम आदिका प्रयत्न कर सकता है। स्पष्ट ही उसमें उसका हेतु रोगसे मुक्त होना होगा। उसका यह कर्म पारमार्थिक नहीं कहलायेगा। पारमार्थिक कर्म तो वही है जिसका हेतु केवल ईश्वर दर्शन हो और यह हेतु भी स्वाभाविक फलके रूपमें ही उत्पन्न होना चाहिए। कर्त्ताको इसका तनिक-सा भी विचार न रहे। उसके कर्ममें ईश्वर — दर्शनकी ही आतुरता हो। कोई दूसरा विचार ही न हो। ऐसा व्यक्ति देहका भान भूल जाता है, जैसे गोपियाँ भूल गई थीं।