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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विषयासक्त व्यक्ति भी देहका भान भूल जाता है किन्तु वह सीधा नरकमें जाता है। क्योंकि उसे ईश्वरका नहीं, विषयका दर्शन करना है। यदि कोई विषयी व्यक्ति विषया-नुभवके बाद ईश्वरका अनुभव प्राप्त करता है, तो उसे पता चलता है कि वह विषयमें भी तदाकार तो होता था किन्तु इस तादात्म्यमें अधिक सुख है। पहली तल्लीनतामें अपना भान भूलनेके फलस्वरूप शिथिलता आती थी। इसमें उसे लगेगा कि तेजस्विता प्राप्त होती है। इस तल्लीनताके फलस्वरूप उसकी कर्मठता कम नहीं होती बल्कि वह अधिक कुशल बनता है। पारमार्थिक और ईश्वरार्पण बुद्धिसे अपने समस्त कामोंको करनेवाला अकर्मवान् है। जैसे न्यायाधीश बादशाहकी ओरसे न्याय देता है और फाँसी देनेवाला बादशाहकी ओरसे फाँसी देता है, इसी प्रकार इस विश्व — राज्यमें भी ईश्वरके गुलाम बनकर उसके इशारेपर नाचना चाहिए। यदि वृत्ति ऐसी बना लें, तो कर्म-मात्र पारमार्थिक हो जाता है।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥(४,१९)

जिस मनुष्यके सभी समारम्भ काम तथा संकल्पसे वर्जित हो गये हैं, उसका किसी भी कर्मको आरम्भ करना स्वाभाविक ही है। जिस मनुष्यके कर्म ज्ञान रूपी अग्निसे भस्म हो गये हैं (जिस वस्तुकी उत्पत्ति और नाश है, उसमें चेतन-तत्त्व है; यहाँतक कि पत्थरमें भी चेतन है। वह अकर्मी है, फिर भी उसमें ज्ञान नहीं है।), वह व्यक्ति पत्थरकी तरह जड़ रहते हुए भी अनन्त कर्म कर रहा है और अनन्त काम करता हुआ भी अकर्मी है; क्योंकि उसके सभी काम ज्ञानाग्निसे दग्ध हो जाते हैं। ईश्वरकी पृथ्वी निरन्तर चलती हुई भी स्थिर जान पड़ती है। जिसे देखनेसे चक्कर आ जाये, ऐसी जबरदस्त गति होनेपर भी वह हमें स्थिर जैसी लगती है। टाइपराइटरपर टाइप करना स्वाभाविक हो जानेके बाद आँखसे देखे बिना अँगुली टाइपके ऊपर पड़ती रहती है — जिसके लिए कार्य इतने स्वाभाविक हो जाते हैं, इतना चेतनमय होकर जो काम करता है, उसे बुद्ध कहा जा सकता है।

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बुधवार, २ जून, १९२६[१]

अब अकर्मके कुछ दृष्टान्त दे रहा हूँ।

इस मनुष्यको[२] अपनी स्थितिका भान नहीं हुआ है और यह बोल रहा है किन्तु इसे बोलने न बोलनेका होश नहीं है। इसी तरह सम्भव है, हम काम तो बहुत करें किन्तु हमें उसका भान न हो। हम इस शरीरमें स्थित आत्माको जानना चाहते हैं सुदामाकी तरह उसे अपने अस्तित्वके एक स्वाभाविक अंगके रूपमें जानना चाहते हैं।

  1. मंगलवार २५-५-२६ से मंगलवार २-६-२६ तक विनोबा आये हुये थे, इससे "गीता- शिक्षण" बन्द रहा।
  2. इसी समय एक पागल 'प्रभु-प्रभु' कहता हुआ वहाँ आ गया था। आगेकी बात उसे ध्यानमें रखकर कही।