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'गीता-शिक्षण'

अनुभवी बढ़ई सहज ही पटिया चिकनी बना डालता है; जिसे उसका केवल किताबी ज्ञान हो, वह उसपर अनायास रन्दा नहीं कर सकता। इस तरह जिसे स्वाभाविक काम करनेकी आदत हो गई है वह काम तो करता ही चला जाता है किन्तु फिर भी रहता है निर्लेप। 'यस्य सर्वे समारम्भाः' में ऐसे ही व्यक्तिका उल्लेख है। आँखकी पलक उठाने-गिराने में किसीको परिश्रम नहीं करना पड़ता; कर्म उसी तरह स्वाभाविक हो जाने चाहिए। जिसका विचारोंपर इतना वश हो गया हो कि एक भी मलिन विचार उत्पन्न ही न होता हो, वह शववत् विचरण करता है। हमें लगेगा कि शववत् विचरण कर रहा है, क्योंकि उसमें न काम है, न संकल्प है। जिसमें रागद्वेष नहीं है, वह अकर्मी है।

'गीता' सिखानेका मेरा यह काम तो संकल्पयुक्त है; और इसका हेतु यह है कि बच्चे सीखें।

त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥(४,२०)

कर्मके फलकी आसक्ति जिसने तज दी है, वह नित्यतृप्त है, जिसे न कभी कम महसूस होती है और न वृद्धि, जो सदा सन्तुष्ट है, ऐसा व्यक्ति कर्ममें तल्लीन होते हुए भी कुछ नहीं करता। जैसा कि नरसी मेहताने कहा है कि 'जती और सतीको प्रेमके रसकी खबर ही नहीं पड़ती।' यदि कोई आये और देखे कि हम चौबीस घंटे चरखा ही चलाते रहते हैं तो उसे लगेगा कि ये लोग पागल हो गये हैं। इन्हें पूजा-पाठ सूझता ही नहीं है। फिर भी 'गीताजी' के आधारपर हम कह सकते हैं कि हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं क्योंकि इसमें हमारा कोई स्वार्थ नहीं है, हम इसे धर्म समझकर कर रहे हैं, केवल श्रद्धासे कर रहे हैं। जब चारों तरफ अश्रद्धा फैली हुई है, तब भी हम इसे श्रद्धापूर्वक करें, क्योंकि इसमें स्वराज्य है — हमारी यह दृष्टि हमारी नित्यतृप्तताकी स्थिति सूचित करती है। जो चरखेके विषयमें इतना सब मानकर उसमें डूबे रहते हैं, यह बात उन्हींपर लागू होती है।

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।(४,२१)

जो व्यक्ति किसी भी प्रकारकी आशा नहीं रखता, जिसका चित्त स्थिर हो गया है और जिसने परिग्रह-मात्रका त्याग कर दिया है, शरीरका भार केवल ऐसे ही व्यक्तिको नहीं लगता। यह कैसे होता होगा? शरीर ही परिग्रह है। इसका उपयोग इस तरह किया जाना चाहिए कि अगर कल उसका पात होनेवाला है तो आज हो जाये। यदि मनःस्थिति ऐसी रहे, तो शरीर भार-स्वरूप न लगे। लाधा महाराजने शरीरके परिग्रहकी चिन्ता भी छोड़ दी थी और वे चौबीसों घंटे शिवजीका जप करते रहते थे। जो व्यक्ति शरीर टिकानेके लिए शरीरको योग्य किराया-भर देकर कर्ममें लगा रहता है, जो भोगकी दृष्टिसे कर्म नहीं करता, वह कर्ममें लगा हुआ भी पापोंका संग्रह नहीं करता।