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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

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गुरुवार, ३ जून, १९२६

उपर्युक्त रूपसे केवल शरीर-कर्म करनेवालेको कर्मका फल नहीं बाँधता। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके कर्मोंका फल ही नहीं होगा। फल तो होता है किन्तु स्वयं वह् फलके पीछे नहीं घूमता। दूसरे शब्दोंमें वह कर्मका आरोपण आत्मापर नहीं करता। उदाहरणके लिए मैं 'गीता' सुनता हूँ। उसे सुनते हुए मुझे नम्रभाव रखना चाहिए, क्योंकि उसे सुनना तो कर्त्तव्य ही है। फल तो अनायास उत्पन्न होते रहेंगे। जैसे बीज बो देनेके बाद वे ऊगते ही हैं। किन्तु बीजको अहंकार नहीं होता। जिन बातोंमें हम लोग पशुओंके समान हैं, उन बातोंकी हदतक हम पशु हैं। किन्तु ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जिनमें हम पशुओंसे भिन्न हैं। हमारे मनका अहंकार, कर्त्ता होनेका अभिमान, समाप्त हो जाना चाहिए। जो आदमी नित्य दैनन्दिनी लिखता है, वह यह नहीं सोचता कि मेरा हाथ आज इतनी बार चला। इसी प्रकार कार्य मात्र हमारे लिए स्वाभाविक हो जाने चाहिए।

बड़ेसे- बड़ा पुण्य-कर्म भी पाप-रूप हो जाता है। किसी पुण्यके फलस्वरूप राजाका जन्म मिले, तो भी क्या होता है। क्योंकि राजाका जन्म लेनेमें कोई सार नहीं है। राजा और रंककी तरह जन्म लेना एक ही स्थितिके दो छोर हैं। हम कहते हैं कि हमें प्रयत्नपूर्वक जागते रहनेका प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा जान पड़ता है मानो जो श्लोक हम आज कर रहे हैं, यह बात उसके विरुद्ध हो। किन्तु यह हमारा स्वभाव बन सकता है, इसलिए हम इसका प्रयत्न करते हैं। यह वैसी ही बात हुई जैसे सात्विक प्रवृत्तियोंके द्वारा रज और तमसे पार होनेकी इच्छा।

'शारीर कर्म' अर्थात् शरीर-निर्वाहक कार्य। शरीरका लाड़-दुलार करनेसे ब्रह्मचर्य आदिका पालन मुश्किल हो जाता है। जिस कामको स्वाभाविक हो जाना चाहिए, हमने उसे कठिन बना लिया है। ब्रह्मचर्यका उल्लंघन करना मनुष्यका स्वभाव नहीं है। हम शरीर और आत्माको एक मानकर बैठे हैं, इसीलिए विषयभोग की बात उठती हैं। किन्तु यदि हम शरीरको जड़ मानकर उसे केवल निभानेका ही विचार रखें तो ऐसी परिस्थिति सामने न आये। शरीरको आत्माका मन्दिर मान लेनेके बाद हमारे भीतर विषय-विकार आयेंगे ही कैसे? आधे घंटे लिखनेका काम करके शरीरका निर्वाह करना एक चोरी है। मन आत्माका काम करता है और शरीर भी उसीकी चाकरी बजाता है। किन्तु इस शरीरका निर्वाह तो शरीर श्रमसे ही हो सकता है। लिखाने-पढ़ानेका काम भी शरीर निर्वाहका साधन नहीं माना जा सकता। खेती अथवा ऐसे ही किसी कामको शारीर-श्रम कहा जा सकता है।

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।(४,२२)

सहज ही जो कुछ मिल जाये, उसमें जो व्यक्ति सन्तोष मानता है, जो द्वन्द्वातीत अर्थात् सुख-दुःख आदिको उलाँघ गया है, जिसे मत्सरादि नहीं हैं और जो सिद्धि तथा