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गीता-शिक्षण

असिद्धिके प्रति समभाव रखता है, तटस्थ रहता है, निर्विकार रहता है—अनुकूल वस्तुके मिलनेपर नाचता नहीं फिरता और प्रतिकूल परिणाम आनेपर रोने नहीं बैठ जाता — वह मनुष्य कर्म करते हुए भी कर्म नहीं करता अर्थात् उसे कर्म-बन्धन नहीं होता।

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।(४,२३)

जो व्यक्ति आसक्ति-रहित काम करता है, वह मुक्त है अर्थात् कर्म-बन्धनसे छूट गया है। ज्ञानके द्वारा जिसका चित्त स्थिर बन गया है, जो केवल यज्ञ-दृष्टिसे काम करता है, उसके सभी कर्म विलीन हो जाते हैं ।

यदि हम भोजन भी अपने ही लिये करते हों, तब तो हमारा मर जाना ही अच्छा है। हम जो कुछ खाते-पीते हैं वह यदि ईश्वरार्थ हो, आत्माके लिए हो, यज्ञके लिए हो तो वह अकर्म हो जायेगा।

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शुक्रवार, ४ जून, १९२६

हजारों बार श्रद्धापूर्वक मन्त्रोंका पाठ करनेसे पाठ करनेवालेके लिए वे अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। मुसलमान कलमा पढ़ते हुए नहीं थकता और हिन्दू गायत्री पढ़ते हुए, राम-राम करते हुए अथवा द्वादश मन्त्र जपते हुए नहीं थकता।

आज जो श्लोक किये जाने हैं, उनके विषयमें मैंने विनोबाके साथ विस्तारसे चर्चा की, किन्तु मैं उनके अर्थके विषयमें निश्चिन्त नहीं हुआ हूँ। 'गीताजी' की रचना 'वेद' के बाद हुई और विभिन्न सम्प्रदायोंने उनकी व्याख्या अपने-अपने पंथके पक्षको मजबूत करनेकी दृष्टिसे की। वेदादिकी क्रियाको 'गीताजी' ने गलत कह दिया है, यह भी मुझे अतिशयोक्ति-सी लगती है। इसलिए मैंने बार-बार ऐसा अर्थ खोजने की कोशिश की है, जिसका वेदोंसे मेल बैठ जाये। अपनी दृष्टिसे मुझे मेल बैठाना जरूरी नहीं लगता, किन्तु मुझे श्लोकोंका अर्थ आप सबके सन्तोषके योग्य करना है। 'गीताजी' के रचनाकारने यह लकीर नहीं खींच दी थी कि जो अर्थ उसने किया है, वही उसके वारिस भी करें। 'गीता' में कहा गया है कि यज्ञकी दृष्टिसे किया गया कोई भी कर्म अपना कोई फल नहीं छोड़ता। जिस कार्यमें स्वार्थका विचार नहीं है, वही यज्ञ है। आगे जो श्लोक आता है, वह इसी विचारका परिणाम है और उसका साधन भी है।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।(४,२४)

अर्पण भी ब्रह्म है और हवि भी ब्रह्म है। (अर्पणका अर्थ यज्ञकी सामग्री समझा जाता है।) ब्रह्मरूप अग्निमें ब्रह्मरूप कर्त्ताके द्वारा हवन किया जाये तो यह आचरण