ब्रह्म-आचरण-जैसा होगा। जो ब्रह्म और कर्मका घनिष्ठ मेल बैठा सकता है, वह ब्रह्ममें लीन हो जाता है। जब सम्पूर्ण यज्ञको ईश्वरमय कर दिया, तब कर्मका फल बचा ही कहाँ। वह तो मानो यज्ञका श्रुवा और आहुति बन जाता है। वह तो ईश्वरको कुम्हार मानकर अपनेको माटीकी भाँति बना लेता है और इस तरह ईश्वर उसे जैसा गढ़े, वैसा गढ़नेके लिए उसके हाथमें अर्पित हो जाता है। यहाँ यह बताया गया है कि कर्ममें अकर्म किस तरह सधता है।
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शनिवार, ५ जून, १९२६
अब यज्ञके अलग-अलग भेद आते हैं:
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥(४,२५)
दूसरे अनेक लोग देवताओंकी भलीभाँति पूजा द्वारा यज्ञ करते हैं; और अन्य अनेक ब्रह्मरूपी अग्निमें ब्रह्मके द्वारा यज्ञ करते हैं।
विनोबा कहते थे कि 'वेद' में इस बातका आधार मिलता है कि ब्रह्मज्ञानीको यज्ञ करना भी कर्त्तव्य-रूप नहीं है। जिसने सारे जीवनको ही यज्ञ बना दिया है उसके लिए कौन-सा नया यज्ञ करना शेष बच रहता है। हमारे यहाँ एक लगभग अन्धी बहन आई हुई है। उसका कण्ठ मधुर है। वह 'रघुपति राजा राम' की धुन लगाती है। यह बहन तमिल है। अपने पतिकी आज्ञासे ही वह यहाँ आई है। वह बुद्धिमती भी जान पड़ती है। हम कह सकते हैं कि जो व्यक्ति इस बहनकी सेवा करेगा वह यज्ञ करेगा। यह परमार्थका काम है। किन्तु जो व्यक्ति यज्ञके द्वारा ही यज्ञ करता है अर्थात् जिसने अपने सम्पूर्ण जीवनको यज्ञ बना डाला है, उसके लिए यज्ञ मात्र स्वाभाविक हो जाता है। ऐसा व्यक्ति तो तन्द्रारहित होकर निरन्तर यज्ञ करता ही रहता है। जीव मात्रके दुःखसे तद्रूप हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह यज्ञ करना छोड़ देता है। यज्ञ करना उसका स्वभाव बन जाता है। कनिष्ठसे-कनिष्ठ व्यक्तिके भीतर भी ईश्वरका भाव रहता है।
कुछ लोग कानादि इन्द्रियोंको संयम-रूपी अग्निमें होम देते हैं अर्थात् वे कानसे सुनना, जीभसे बोलना और स्वाद लेना, आँखसे देखना आदि तज देते हैं।
कुछ लोग शब्दादि विषयोंको इन्द्रिय-रूपी अग्निमें होम देते हैं।[१] अर्थात् यहाँ क्रिया उलटी होती है। हम कान बन्द नहीं कर सकते, इसलिए अच्छा ही सुनें। आँख बन्द नहीं कर सकते, इसलिए ईश्वरीय शक्तिका दर्शन किया करें। इसीका अर्थ है: विषयोंको इन्द्रियोंके भीतर होम देना।
- ↑ 'श्रोत्रादीन्द्रियाण्यन्ये' आदि (४, २६) श्लोक अध्याहारमें है।