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'गीता-शिक्षण'

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रविवार, ६ जून, १९२६

किशोरलालभाई जब दूसरोंसे अलग एक झोंपड़ीमें रहते थे, तब वे इन्द्रियोंके संयमका अभ्यास करते थे। वे जब 'ज्ञानेश्वरी' का[१] पाठ करते तब रेलगाड़ीकी आवाज आती। मैंने सुझाव दिया कि कानमें रबड़के ठेठे लगा लो। किन्तु उन्होंने अपने मनको ही अनुरूप बना लिया और कहा कि मुझे ठेंठोंकी जरूरत नहीं रही।

किन्तु बच्चोंके विषयमें क्या करें! उन्हें तो इन्द्रियोंपर बन्धन लगाने ही पड़ेगे। क्योंकि ऐसी ध्यानावस्था उनके लिए सजह नहीं है। इसी तरह शब्दादिके विषयमें भी समझना चाहिए।

अब कहते हैं:

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥(४,२७)

सभी इन्द्रियोंका व्यापार बन्द करके प्राणके व्यापारको अर्थात् श्वासोच्छ्वासको भी रोककर, स्थिर होकर, समाधिस्थ होकर, आत्मसंयम करके इस योगको ज्ञानके द्वारा सुलगाकर सारी इन्द्रियोंको उसमें होम देता है।

जो व्यक्ति किसी भी रीतिसे अपने मन इत्यादिको रोक न सकता हो तो वह इस तरह करे, अथवा वह व्यक्ति अपने ऊपर क्रोधित होकर सभी कुछ बन्द कर दे। कुछ लोग ब्रह्मचर्य पालनमें सफल न होनेपर खीज उठते हैं। उत्तरी ध्रुवकी यात्रा करनेवाले व्यक्ति बार-बार बिना ऊबे हुए करोड़ों रुपया खर्च करके वहाँ पहुँचनेका प्रयत्न करते हैं। ब्रह्मचर्य व्रतके पालनकी इच्छा करनेवाला खीजकर अन्तमें अनशन व्रत ले लेता है और कहता है कि मैं एक भी क्रिया नहीं करूँगा, क्योंकि एक भी क्रिया करता हूँ तो मेरा मन व्यस्त हो जाता है। इसलिए मैं सब कुछ बन्द कर दूँगा। यही आत्मसंयम —योगाग्नि है। यह जड़ समाधि नहीं है, यह तो ज्ञान-समाधि है। ब्रह्मचर्यके पालनमें सफलता प्राप्त करनेकी इच्छा प्रसूतिकी वेदना जैसी वस्तु है। संयम पालन करते हुए जो विक्षेप होते हैं उन्हें सहन न करनेपर व्यक्ति चिढ़ जाता है, हम ऐसा देखते हैं। इसीलिए मैं कहता हूँ कि यह दुधारू गाय है, इसकी लात सहन करनी चाहिए।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥[२](४,२८)

कुछ लोग द्रव्ययज्ञ करनेवाले होते हैं। अपने द्रव्यका दूसरोंके साथ बँटवारा करते हैं। कुछ अन्य लोग तपके द्वारा मनरूपी बन्दरको बाँध रखते हैं। कोई योग करता है, कोई स्वाध्याय, कोई वेदाभ्यास, कोई ज्ञान यज्ञ करता है, कोई लिखना-पढ़ना

  1. ज्ञानेश्वर महाराज (१३ वीं शताब्दी) कृत गीताकी टीका।
  2. अनेक टीकाकारोंने दूसरी अर्दालीका अर्थ यह किया है कि 'संशितव्रत' [ कठिन व्रतोंका पालन करनेवाले ] पतिगण [ प्रयत्न शील पुरुष ] शास्त्रके अध्ययनके रूपमें यज्ञ करते हैं।