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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

छोड़कर विचार-ही- विचार करता है। तीक्ष्ण व्रतोंका पालन करनेवाले यति कड़े व्रतोंके पालनके द्वारा यज्ञ करते हैं।

[ ७५ ]

मंगलवार, ८ जून, १९२६

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥(४,२९)

कोई अपान वायु (बाहरसे भीतर ली जानेवाली वायु) के भीतर प्राणवायुका हवन करता है, कोई प्राणमें अपान वायुको रुद्ध कर रखता है, कोई दोनोंको रोक लेता है। ये सब प्राणायामपरायण हैं।

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्यते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥(४,३०)

अन्य नियताहार व्यक्ति-आहारको नियमित बना डालनेवाले व्यक्ति-प्राणको प्राणके अन्दर हवन करते हैं। ये सब यज्ञको जाननेवाले हैं और उन्होंने यज्ञके द्वारा अपना मैल धो डाला है।

[ ७६ ]

बुधवार, ९ जून, १९२६

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।।(४,३१)

कामको जीतना भी यज्ञ है। 'गीताजी 'ने तो कहा है कि किसी भी परमार्थ कार्यको यज्ञकी तरह किया जा सकता है। परोपकार अर्थात् दूसरोंके लिए कर्म करना। किन्तु दूसरोंके लिए कर्म करना एक आभास मात्र है। वास्तवमें तो उसे करके हम अपना ही काम करते हैं। यदि हम कोई भी काम केवल अपने लिए करें तो हमारा नाश ही हो जाये। इसलिए प्रत्येक परमार्थ कर्म अपने ही लिए है।

जो यह यज्ञ-कार्य करनेके बादके शेष अमृतका अर्थात् यज्ञकार्यसे बचे हुए समयका अपने लिए उपभोग करता है वह सनातन ब्रह्मको प्राप्त करता है। जिसने दिन-भर कोई काम नहीं किया है और भैंसके पाड़ेकी तरह कीचड़में लोटता रहा है, उसका रातको सोना भी चोरी करना है। यज्ञ न करनेवालेके लिए यह लोक भी नहीं है, तब फिर उसका परलोक क्या होगा। ऐसा व्यक्ति तो यहाँ भी भ्रष्ट है और वहाँ भी भ्रष्ट है।

[ ७७]

गुरुवार, १० जून, १९२६

कल जो श्लोक किया था, उसका अर्थ व्यापक है। भाव यह है कि संसारके सभी प्राणी खा चुकें, तब हमें खाना चाहिए। देहधारी जबतक जगत्में है, तबतक उसे दूसरों-के साथ हिस्सा तो बँटाना ही पड़ेगा। देहके प्रति वैराग्य उत्पन्न होनेका अर्थ यह है