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'गीता-शिक्षण'

कि ऐसा व्यक्ति केवल परोपकारमें ही लीन हो जाता है और परिणामतः सनातन ब्रह्ममें पहुँच जाता है। जिस तरह झुंडसे अलग हो जानेवाली भेड़का बच्चा टोलीमें जा मिलनेके लिए व्याकुल हो जाता है, वैसी ही व्याकुलता हमारे भीतर ब्रह्ममें लीन होनेकी होनी चाहिए। इससे विपरीत जो अपने ही लिये जीता है, उसका न यह लोक बनता है, न परलोक। इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुझे स्वजन और परजनका सवाल भूल जाना चाहिए। यदि तू किसी एकको भी मार सकता है, तो इन्हें भी मार सकता है।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥(४,३२)

इस श्लोकका एक यह अर्थ भी है कि ब्रह्मके प्रति ऐसे अनेक तरहके यज्ञ हैं। यहाँ वेदकी बात ही उड़ा दी गई है, क्योंकि 'गीता' में 'वेद' की निन्दा पाई जाती है और फिर इन श्लोकोंमें कही गई बात[१] 'वेदमें' कहीं नहीं मिलती। इसका सामान्य अर्थ तो यही होता है कि 'वेद' में इतने प्रकारके यज्ञ कहे गये हैं। तुझे यह समझ लेना चाहिए कि ये सब यज्ञ कर्मसे उत्पन्न हुए हैं। मोक्ष तुझे उसी अवस्था में मिलेगा। कर्म और अकर्मकी बात करनेके बाद इस श्लोकमें भगवानने यह कह दिया कि कर्म किये बिना कोई गति ही नहीं है। यहाँ अकर्मकी बात ही नहीं कही। आत्मार्थ किया हुआ हरएक कर्म, कर्म होते हुए भी अकर्म है। कर्मके फलका त्याग करना अर्थात् दूसरोंके लिए कर्म करना हो, तो हम उसमें घोड़ोंके-जैसे जुत जायें और अगर अपने लिए करना हो तो निःस्पृह भावसे जड़ होकर उसे करें। यह एक हार्दिक स्थिति है, मनकी भावना है। हृदय और मनकी इस भावनासे जो व्यक्ति सोने, खाने, पीने, पाखाना साफ करने इत्यादिका काम करेगा, वह मनुष्य मोक्ष प्राप्त करेगा। 'एवं बहुविधा यज्ञाः वाले श्लोकमें एवं बहुविधा कहनेका अर्थ यह है कि यहाँ कुछ नमूने-भर दे दिये गये हैं। 'गीताजी' की व्याख्याके अनुसार जिन्हें यज्ञ कर्म कहा जा सके, वे सब यज्ञ हैं।

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥(४,३३)

द्रव्य-यज्ञकी अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ करनेवालेका समर्पण अधिक बताया गया है। क्योंकि ज्ञान-यज्ञमें द्रव्य और उसके साथ-साथ अन्य सब कुछ आ जाता है। संसारमें सभी कुछ ज्ञानके अन्तर्गत आ जाता है। जड़-चेतनका भेद भी समाप्त हो जाता है। द्रव्ययज्ञका विस्तृत अर्थ करें तो प्रत्येक द्रव्यका यज्ञ उसके अन्तर्गत आ जायेगा। जो व्यक्ति हमें ज्ञानसे आप्लावित करता है, जो मनुष्य हमारे हृदयमें यह तत्त्व बैठा देता है कि देह आत्मासे भिन्न वस्तु है, कहा जा सकता है कि उस व्यक्तिने महान् यज्ञ किया है।

  1. इस चौये अध्यायमें २४वें श्लोकसे ३०वें श्लोकतक कही गई यश-सम्बन्धी बात ।