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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

[ ७८ ]

शुक्रवार, ११ जून, १९२६

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥(४,३४)

यह ज्ञान तू प्रणिपातेन, साष्टांग नमस्कार करके, समित्पाणि होकर, गुरुकी सेवा करके बार-बार प्रश्न करके-गुरुको परेशानतक करके ही प्राप्त कर सकता है। [ तब ] तत्त्वदर्शी ज्ञानीजन तुझे यह ज्ञान देंगे।

[ ७९ ]

शनिवार, १२ जून, १९२६[१]

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥(४,३५)

उसे जानने के बाद तुझे फिर मोह नहीं होगा, तू स्वजन और परजनका भेद नहीं करेगा, सबके प्रति समानचित्त हो जायेगा और उसके माध्यमसे तू सब जीवोंको, भूतमात्रको अपने में और मुझमें देखने लगेगा। अर्थात् तू समझ जायेगा कि सारे जगत्में मैं ही व्यापक हूँ। जब तेरे हृदयका अहंभाव नष्ट हो जायेगा, तब तुझे 'जले विष्णुः स्थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके' सारे जगत्में ईश्वर ही ईश्वर है, यह ज्ञान हो जायेगा। इसे जाननेके बाद हिंसा-अहिंसाकी बात भी कहाँ उठ सकती है। तब यह अनुभव हो जायेगा कि चोर, व्याघ्र इत्यादि भी आत्ममय हैं। समझना चाहिए कि जबतक यह ज्ञान नहीं हुआ है, तबतब कोई ज्ञान ही नहीं हुआ है।

[ ८० ]

रविवार, १३ जून, १९२६

ऊपरके श्लोकमें जो ज्ञान कहा गया है, सो हमें हो गया है, अथवा नहीं ? मान लें कि यह श्लोक हमें कण्ठस्थ हो जाये और हम उसको बिना पुस्तकमें देखे बोल सकें तो क्या इससे हम तत्त्वदर्शी कहला सकते हैं। यही वस्तु हम दूसरोंपर लागू करके देखें कि क्या वे श्लोकका पाठ कर सकनेके कारण ज्ञानी कहला सकते हैं। नहीं; इस तरह श्लोक पाठ कर देनेका अर्थ ज्ञानी होना नहीं है। हम यह तो जान गये कि सारा जगत् हममें है, किन्तु इसका भान हमें प्रतिक्षण नहीं बना रहता। इस ज्ञानका घूंट गलेसे नीचे नहीं उतरता और उसका अनुभव नहीं होता। यहाँसे उठते ही हम भेदभाव बरतने लगेंगे। जब यह ज्ञान बुद्धिसे गहरा उतरकर हृदयमें पहुँच जायेगा — अक्लसे छूछे किसी व्यक्तिका हृदय कृपाका सागर हो सकता है। — तभी व्यक्ति इस अनुभव-ज्ञानको प्राप्त कर सकता है। अर्जुनसे कहा गया कि ज्ञानी तुझे वह

  1. “तद्विद्धि प्रणिधातेन” वाला श्लोक बालकोंको विस्तारसे समझाया गया था।