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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बड़ा पण्डित बुलाकर उससे संस्कृत सीख सकते हैं अथवा समाजमें 'गीता' के पण्डित गिने जानेकी दृष्टिसे उसका अध्ययन कर सकते हैं। किन्तु हम यहाँ तो वास्तविक जीवन में परिवर्तनके लिए इसे प्रार्थनास्वरूप मानकर सीखते हैं। मनुष्यके लिए रोटी जितनी जरूरी है, प्रार्थना भी उतनी ही जरूरी है। खल व्यक्ति अपने कानसे निन्दा सुनता है और आँखसे पापोंके दर्शन करता है, किन्तु भला आदमी कहता है कि यदि मेरे आँख कान दस हजार भी होते तो मैं उनसे ईश्वरका दर्शन करता, भजन सुनता; और पांच हजार जीनें भी होतीं तो उनसे उसका नाम लेता। प्राथना कर चुकनेके बाद ही ज्ञानामृत पीनेकी मेरी प्यास बुझती है। जो मनुष्य बनना चाहता है, उसकी खुराक दाल-रोटी नहीं है। यह तो बहुत छोटी बात है। मुख्य वस्तु तो है प्रार्थना। रविवारके दिन जब मैं देरतक सोता रहता था, तब वा 'उठो-उठो' कहती थी, किन्तु में पड़ा रहता था। बा मेरा सबेरा खराब कर देती थी। यह मुझे अच्छा नहीं लगता था। बहुत-सी स्त्रियाँ ऐसा करती हैं। ऐसा नहीं करना चाहिये। किन्तु मेरे पास तब एक बहाना हो सकता था। उन दिनों मैं इस तरह प्रार्थना नहीं करता था। किन्तु मैं तो अपनी एक भूल स्पष्ट कर रहा हूँ। रविवारको इस तरह सोते रहनेसे भी सोमवारको मेरी थकावट कम नहीं हो जाती थी। तुम लोग तो ब्रह्मचारी हो। तुम्हें तो रोज उठकर प्रार्थनामें शामिल होना ही चाहिए। दूसरी सभी बातोंके बारेमें छुट्टी मिल सकती है, किन्तु प्रार्थनासे छुट्टी नहीं मिल सकती। इस आध घंटेमें एक ही वस्तु मनमें आती रहे, दूसरी कोई बातका ध्यान न आये, ऐसी स्थिति हो जानी चाहिए। थोड़ी देर इस तरह विचार करनेका अवसर तो सामुदायिक रूपसे भी रखा जाना चाहिए। यह तो प्राणिमात्रके साथ तन्मयता साधनेका प्रसंग है। बस। आज तो 'गीताजी' की इतनी ही व्याख्या हुई।

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बुधवार, १६ जून, १९२६

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥(४,३८)

ज्ञानके समान पवित्र अन्य कोई वस्तु जगत्में नहीं है। (इसीलिए ज्ञान यज्ञ ही शुद्धातिशुद्ध यज्ञ कहा गया है।) योगके द्वारा जो व्यक्ति मोक्षके योग्य बन गया है, वह व्यक्ति अपने ही प्रयत्नोंसे कालान्तर में ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ज्ञानका अर्थ हुआ आत्म-दर्शन। इतना हुआ कि शरीर और कर्मका सारा बोझ पिघलकर पानी हो जाता है।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।(४,३९)

जिसके हृदयमें अखण्ड श्रद्धाका निवास है, वह तो केवल रामका नाम लेकर भी पार हो जायेगा। अनेक माता-पिता इसी दृष्टिसे अपने बाल-बच्चोंका नाम भगवानके नामपर रखते हैं। उनका उद्धार इतने भरसे हो जाना सम्भव है। जो उसके भक्त हैं,