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'गीता-शिक्षण'

आत्मसंयमी हैं, जो इच्छानुसार सो जा सकते हैं अर्थात् जिनका इन्द्रिय-मात्रपर सम्पूर्ण अंकुश है, वे इस तरहका ज्ञान प्राप्त करते हैं और सत्वर ही शान्ति तथा मोक्ष भी पा जाते हैं।

[ ८३ ]

गुरुवार, १७ जून, १९२६

गणितका प्रश्न बुद्धिसे हल हो जाता है। इसके लिए उस प्रश्नके प्रति श्रद्धाका होना आवश्यक नहीं होता, किन्तु आत्मज्ञानके क्षेत्रमें श्रद्धाके बिना काम नहीं चलता। क्या माता अथवा पिताके प्रति प्रेमभाव के लिए बालककी बुद्धिको किसी प्रकारका शिक्षण देना पड़ता है? निरक्षर माताके मनमें भी अपने बालकके प्रति प्रेम रहता ही है। ईश्वरके प्रति किसी भी नाते जैसा प्रेम सम्बन्ध रखा जा सकता है। कविने हमारे सामने ईश्वरीय प्रेमका एक अंश ही रखा है। जो अगाध समुद्रकी कल्पना नहीं कर सकता, नदी-नालोंके आधारपर उसे उसके विषयमें कुछ-न-कुछ बताया जा सकता है।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥(४,४०)

जो ज्ञानसे विमुख है, जिसमें श्रद्धा नहीं है अर्थात् जिसके मनमें संशय है, ऐसे व्यक्तिका विनाश हो जाता है। उसके लिए न इस लोकमें सुख है न परलोकमें।

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसं छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।।(४,४१)

जिस व्यक्तिने योगके द्वारा समस्त कर्मोंका त्याग कर दिया है और ज्ञानके द्वारा जिसकी शंका नष्ट हो गई है ऐसे आत्मज्ञानी व्यक्तिको कर्म नहीं बाँधते।

तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।(४,४२)

इसलिए अज्ञानसे उत्पन्न और हृदयमें स्थित संशयको ज्ञान रूपी तलवारसे नष्ट करके योग तू कर्म-योगको धारण कर और उठ।

अध्याय ५

[ ८४ ]

शुक्रवार, १८ जून, १९२६

अर्जुन पूछता है: ज्ञान-यज्ञ करूँ अथवा कर्म-यज्ञ?

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥(५,१)

आपने एक बार कहा कि कर्म मात्रका त्याग कर देना चाहिए। फिर आपने बताया कि योगका अर्थ है कर्मयोगकी साधना। तब इन दोनोंमें से श्रेयस्कर कौनसा है। मुझे निश्चित रूपसे इनमें से एक बताइए।

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