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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अर्जुनको निमित्त बनाकर व्यासजी यह प्रकट कर रहे हैं कि 'महाभारत' लिखा तो गया है, किन्तु यह कर्म यज्ञार्थ किया गया है, और जो इसे पढ़ेंगे वे भी इसे श्रेयकी दृष्टिसे पढ़ेंगे अर्थात् वह भी यज्ञार्थ होगा।

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शनिवार, १९ जून, १९२६

आदमी खाता हुआ भी नहीं खाता, ऐसा कब कह सकते हैं? क्या हम कह सकते हैं कि यदि कोई बेखबरीसे खाते-खाते नाकमें कौर लगा दे तो वह खाता हुआ भी नहीं खा रहा है? जो खाते हुए खेल अथवा किसी अन्य बातका विचार कर रहा है, उसके विषयमें इतना ही कहा जा सकता है कि वह असावधान है। यह नहीं कहा जा सकता कि खानेके प्रति वह उदासीन। सुव्यवस्थित रीतिसे खानेकी क्रिया कर रहे किसी व्यक्तिके विषयमें भी कहा जा सकता है कि वह नहीं खा रहा है। किन्तु यह कब? जब उसका खाना यज्ञार्थ हो, जब उसका खाना कृष्णार्पण हो, जब वह इसी निश्चयके साथ खा रहा हो कि जो कुछ खा रहा हूँ, तेरी आज्ञासे खा रहा हूँ अथवा इतना समझकर खा रहा है कि खानेवाला मैं नहीं हूँ, शरीर है। आत्मा न खाती है, न पीती है, न सोती है — अर्थात् खानेकी यह क्रिया जब परोपकारके लिए हो रही हो, लूले-लंगड़े और दुखियोंकी सेवाके लिए हो रही हो। ऐसी सेवा भगवानकी सेवा है क्योंकि लूलों-लंगड़ों और दुखियोंके भीतर निवास करनेवाला भगवान स्वयं लूला-लंगड़ा और दुखी है। उस व्यक्तिका खाना-पीना अकर्म है। यह कर्म उसे बन्धनकारी नहीं होता। वैराग्य लेनेकी इच्छा करें तो भी सेवा तो करते ही रहना है। अलबत्ता केवल निस्पृह भावसे। यह सोचकर किसी व्यक्तिकी सेवा नहीं की जानी चाहिए कि हम उसकी सेवा करेंगे तो किसी दिन हमारी भी सेवा की जायेगी। बल्कि इसलिए की जानी चाहिए कि उसमें भगवानका निवास है और इस तरह हमारे द्वारा भगवानकी सेवा होगी। यदि कोई आतुर होकर चिल्ला रहा हो तो हमें तत्काल उसकी सहायताके लिए दौड़ जाना चाहिए। चीखते हुए भगवानकी सेवाके लिए दौड़ना चाहिए और सेवा करनेके बाद ऐसा सोचना चाहिए कि यह तो स्वप्न है। भगवान भी कहीं चीखता है! इस तरह सारी सेवा स्वप्नवत् बन जाती है। जो व्यक्ति भगवानको भोग लगाते हैं, क्या वे उन व्यंजनोंको कृष्णार्पण कर देते हैं? नहीं; वे तो स्वयं उसे खा जाते हैं और उसमें यज्ञार्थ खानेका भाव भी नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति ऐसे व्यंजनोंका उत्तम भाग दूसरोंको दे और स्वयं बचा खुचा सामान्य अंश खाले, तो कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति 'यज्ञ शिष्टामृतभुज' है।

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।(५,२)

संन्यास और कर्मयोग दोनों ही श्रेयस्कर हैं, किन्तु दोनोंमें कर्म-संन्यास से कर्मयोग विशिष्ट है।