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'गीता-शिक्षण'

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गुरुवार, २० जून, १९२६

'नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति' कहकर श्रीकृष्णने यह कह दिया है कि धर्मके यत्किचित् पालनके प्रारम्भका भी नाश नहीं होता। व्यक्ति कर्मसे विलग रह ही नहीं सकता, इसलिए उसके लिए कर्मयोगकी साधना आसान है। किन्तु कर्म-संन्यास करना एक कठिन काम है, क्योंकि इसमें ज्ञानकी आवश्यकता होती है; जब कि पहली बात तो सामान्य व्यक्ति भी कर सकता है। हिमालयकी गुफाको ढूंढकर उसमें एकदम निष्चेष्ट होकर बैठ रहना भी एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है। मन विचलित न होने पाये ऐसी स्थिरता प्राप्त करना एक बड़ा ही विकट काम है। इसलिए भगवान कहते हैं कि सबसे अच्छी बात कर्मयोग है; क्योंकि पहली बात बहुत मुश्किल है और उसमें दम्भके बढ़ जानेका भी भय है। कर्मयोगीके विषयमें ऐसा कोई भय नहीं है।

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते।।(५,३)

कर्मयोगीको संन्यासीकी अपेक्षा विशेष क्यों मानें? कर्मयोगीको नित्य संन्यासी समझना चाहिए। वह कैसा होता है? जो द्वेष नहीं करता, इच्छा नहीं करता वह कर्त्तव्यमें ही परायण रहता है और निर्द्वन्द्व रहता है तथा सरलताके साथ कर्मोसे मुक्त हो जाता है।

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।(५,४)

सांख्य अर्थात् संन्यास और योग अर्थात् कर्मयोग। नासमझ व्यक्ति इन दोनोंको अलग-अलग मानते हैं। किन्तु पण्डितगण ऐसा नहीं मानते। सचमुचमें ये दोनों एक ही सिक्केके दो पहलू हैं। यदि एकको भी पूरी तरहसे प्राप्त कर लिया जाये तो दोनोंका फल प्राप्त हो जाता है। स्थिर वस्तु और अनन्त गतिशील वस्तु ये दोनों, ऐसा जान पड़ता है, मानो एक ही स्थितिमें हों। दृष्टान्त रूपमें पृथ्वीको ले लो। स्थिरता और गति, यह एक द्वन्द्व है। किन्तु जो निर्द्वन्द्व है, उसे इन दोनोंका फल प्राप्त हो जाता है।

यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगंरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।(५,५)

जो वस्तु, जो गति सांख्य अर्थात् कर्म-संन्यासके द्वारा प्राप्त की जा सकती है, कर्मयोगीको भी वही मिलती है। जो व्यक्ति इन दोनों वस्तुओंको एक मान सकता है, वही व्यक्ति सच्चा ज्ञानी है। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि हम इन दोनोंके रहस्यको समझ जायें तो इनमें कोई भी भेद नहीं है। इसलिए यज्ञार्थं किया गया, परमार्थके लिए किया गया और निरहंकार भावसे किया गया कर्म इन दोनों वर्गो में आ जाता है।