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'गीता-शिक्षण'

किसी चौकीदारकी जरूरत नहीं पड़ती। वह [ काममें डूबा हुआ ] बाहरसे तो जड़-जैसा दिखाई देगा, किन्तु भीतरसे ब्रह्ममय है। यन्त्रके सारे गुण होते हुए भी यन्त्रका एक भी दोष उसमें नहीं होगा। इसके अतिरिक्त जिस व्यक्तिने आत्माको जीत लिया है। ― अपने हृदयस्थ असुरोंको जिसने जीत लिया है। ― इन्द्रियोंको जीत लिया है और जो भूत-मात्रको अपनेमें और अपनेको भूत-मात्रमें देखता है, उस मनुष्यके लेखे अपने और दूसरेमें भेद नहीं बचता। वह तो सबका दास होकर रहेगा। सबको मिल जानेके बाद जो बचेगा, उसे ही ग्रहण करेगा। ऐसा व्यक्ति' कुर्वन्नपि न लिप्यते कर्म करता हुआ भी उनमें बँधता नहीं है।

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यशृण्वन्स्पृशञ्जि प्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥
प्रलपन्विसृजन्गृह णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥ (५,८-९)

ये दोनों श्लोक ऊपरके श्लोकका विस्तार हैं। तत्त्ववित् यह मानकर कि मैं कुछ भी नहीं करता, अपना काम करता रहता है। देखते हुए, सुनते हुए, सूंघते हुए, छूते हुए, खाते हुए, जाते हुए, सोते हुए, श्वास लेते हुए, बोलते हुए, छोड़ते हुए, ग्रहण करते हुए, पलकोंको उठाते और गिराते हुए भी यही कहेगा कि इन्द्रियाँ इन्द्रियोंमें वर्तन कर रही हैं, अमुक काम करते हुए भी मैं उसे नहीं कर रहा हूँ। योगी ऐसी बात कह सकता है; धूर्त भी ऐसा पाखण्ड कर सकता है; भगवद्भक्त भी ऐसा कह सकता है। जिसने अपने अन्तर में भगवानको ही स्थापित कर रखा हो, उसके लिए कोई भी काम स्वार्थ-दृष्टिसे करना शेष नहीं बचता। यह व्यक्ति सोता हुआ कहेगा कि मेरा शरीर सो रहा है। शरीरका कोई भी काम अपने-आपमें खराब नहीं है। हम उसे खराब कर लेते हैं। यदि शरीर अपना काम करता रहे, तो उससे सुगन्ध ही आयेगी। इसलिए हम गणितके ढंगसे कह सकते हैं कि जिस हदतक ममता है, उस हदतक काम खराब है, जिस हदतक ममताका त्याग हो चुका है, उस हदतक काम अच्छा है।

[ ८८]

बुधवार, २३ जून, १९२६

ऊपरके श्लोकोंका पाठ-भर करते रहने से हम योगी नहीं बन जाते। 'मैं' बचे ही नहीं, ऐसी परिस्थिति हो जानी चाहिए। इस श्लोकका उपयोग वही व्यक्ति कर सकता है, जिसका मन विभिन्न कामोंमें ओतप्रोत रहता है, जिसने अपनी सारी प्रवृत्तियोंको कृष्णा- र्पण कर दिया है, और जो उनसे स्वयं कोई भी लाभ नहीं उठाना चाहता। वह जो सुनता है सो हरि कीर्तन है; जो देखता है सो हरिदर्शन है। उसे किसी चीजसे पीड़ा भी नहीं होती। जब-जब कोई कष्ट आकर पड़ता है तब-तब वह कहता है कि ना, यह कष्ट मुझे नहीं है। यदि में इस दुःखमें से 'मैं' को निकाल डालूं और उसे राममें लीन कर दूँ तो फिर यह पता ही नहीं चलेगा कि मुझे बिच्छूने काटा है