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'गीता-शिक्षण'

लगा मानो शालिग्राम सामने नाच रहे हों। उक्त सर्प बहुत तो उसके शरीरपर ही असर कर सकता था किन्तु विषय-सर्प तो कामीकी आत्माका नाश कर डालता है।

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गुरुवार, २४ जून, १९२६

'गीताजी' के शब्द केवल इसीलिए नहीं हैं कि हम उनका भाव और अर्थ समझ लें। वे तो तदनुसार आचरण किये जानेके लिए हैं। मेरी समझमें तो 'गीता' के निरन्तर पाठने मेरे समस्त जीवनको प्रार्थनामय बना दिया है। हम जिस विचारका पालन नहीं कर सकते, हमें उसकी बात छोड़ देनी चाहिए। यह बुद्धि और शक्तिका अपव्यय है कि हम जिस बातका पालन नहीं कर सकते उसको झूठ-मूठ पढ़ते चले जायें। मुझे विनोबाकी एक शिकायतको ध्यानमें रखकर यह कहना पड़ रहा है। विद्यार्थीगण जल्दी सोते नहीं हैं और इसलिए जल्दी उठ नहीं पाते तथा उनके स्वास्थ्यकी हानि होती है। विद्यार्थियोंको भी शिकायत है कि शिक्षकगण जल्दी सोनेके बजाय बारह बजेतक बातचीत करते रहते हैं। 'गीता' के पाठका आचरण करें तो ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' अथवा 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' होना चाहिए। हमें अपने पड़ोसीकी दृष्टिसे बातचीत बन्द कर देनी चाहिए और करें भी तो इतने धीरे-धीरे मानो चोर बोल रहा हो। मुझे भी जल्दी ही सो जाना चाहिए। 'ब्रह्मण्याधाय कर्माणि' का क्या अर्थ है? जो मनुष्य जागना नहीं चाहता, ईश्वर उसे नहीं जगाता। इसका यह अर्थ हुआ कि समाजके निर्बलसे निर्बल अंगके साथ अनुकूलता साधनी चाहिए अथवा निर्बल अंगोंको काटकर फेंक देना चाहिए उनका नाश कर देना चाहिए ― उन्हें जला देना चाहिए या उन्हें गड़ा देना चाहिए। यदि हम ऐसा न करें तो आगे बढ़नेका प्रयत्न ही नहीं करना चाहिए।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।(५,१३)

वशी अर्थात् जिसने अपने मनादिको वशमें कर लिया है, वह सारे कर्मोंका मनः पूर्वक संन्यास करके निश्चिन्त हो जाता है। मनःपूर्वक सब कमका संन्यास करनेका अर्थ हुआ मनको तटस्थ बना लेना, मनको विलग कर लेना। ऐसी वृत्तिसे काम करना कि अमुक काम में नहीं करता, ईश्वर मुझसे करा रहा है। जब हम सांस लेते हैं तो ऐसा थोड़े ही सोचते हैं कि में श्वास ले रहा हूँ। हमने यह बात मनसे निकाल दी है। मनोयोगके साथ तो इसे तब करना पड़ेगा, जब श्वास चलनेमें बाधा हो रही हो। नहीं तो श्वास यन्त्रवत् चलता रहेगा। नवद्वारवाले इस शरीरमें आत्मा बिना कुछ करता कराता हुआ शान्तभावसे बैठा रहता है। वह काम करते-कराते भी कुछ नहीं करता। किन्तु यह तभी सम्भव है जब मनसे कर्मका संन्यास किया जा चुका हो।