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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

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शुक्रवार, २५ जून, १९२६

हमारी आँखोंके सामने नाटक तो होता ही रहता है। उसमें रस लिये बिना, मन लगाये बिना यदि हम अपने काममें प्रवृत्त रहें, तो कर्म-संन्यासी कहलायेंगे। एक कैदीको दूसरे कैदीपर चाबुक लगाये जाते समय यह दृश्य देखनेके लिए बैठा दिया गया है। बैठा हुआ कैदी उसमें मन लगाये बिना केवल बैठा है। उसकी आँख इस दृश्यको देख रही है किन्तु उसका मन उसमें लिप्त नहीं है। जो सहज रूपसे सामने आ गया, उसे आँखसे देख लिया किन्तु उसे देखते रहनेके लिए एक क्षण-भर भी रुके बिना मैं आगे बढ़ जाता हूँ।

पुत्र, भाई इत्यादि सम्बन्धोंकी रचना करके हम ऐसा मानते हैं कि इन सम्बन्धोंको निभाना आवश्यक है और उसी प्रकार हम आचरण करते हैं। ये सारे आचरण मनःपूर्वक होते हैं; मनका संन्यास इनमें नहीं होता।

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।(५,१४)

प्रभु अर्थात् आत्मा कर्म, कर्तृत्व और कर्मफलमें से किसीका सृजनहार नहीं है। सब-कुछ केवल स्वभावसे ही होता रहता है।

प्रभु कहते हैं कि आखिर सब कुछ रचा तो मैंने है। इसका यह अर्थ हुआ कि जब तुम देखते हो तो मैं देखता हूँ और जब तुम नहीं देखते तब मैं भी नहीं देखता। यही स्वभाव है। इस बातके आगे भाषा रंक हो जाती है।

इस तरह विभिन्न दृष्टियोंसे यह कहा जा सकता है कि ईश्वर कर्ता है भी और नहीं भी है। यदि तुम अपनी इन्द्रियोंमें रस लेना बन्द कर दो तो तुम्हारी इन्द्रियाँ कभी क्लान्त न हों, तुम्हें कभी क्लान्ति न व्यापे। थोड़ी बहुत क्लान्तिका अनुभव तो अवश्य होगा, क्योंकि अहंभाव एकदम निःशेष नहीं हो जाता। जबतक शरीर है, तबतक ममत्वका सर्वथा नाश सम्भव नहीं है। आत्मदर्शन शब्द छोड़ दें। आत्मशुद्धि शब्दको पकड़ रखें। हमने कल इस बातकी चर्चा की थी। आत्मशुद्धि देहके माध्यमसे करनी है। जिस हदतक देहसे आत्मशुद्धि करवानी है उसी हदतक आत्माके माध्यमसे करवानी है। यों तो वास्तवमें आत्मा न कुछ करता है, न करवाता है।

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शनिवार, २६ जून, १९२६

जब ईश्वर रूपी चित्रकारने इस आँखको बनाया तब उद्देश्य यह था कि उसमें से आत्मा झलकती रहे। उसने यह थोड़े सोचा था कि आँख विषयोंका दर्शन करेगी। आँखका काम तो शरीरकी रक्षाका ध्यान रखकर ईश्वरका दर्शन करना है। हनुमानजीकी मूर्तिको देखकर किस बातका ध्यान आता है? ब्रह्मचर्य, भक्ति और