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'गीता-शिक्षण'

सेवाका। और इसके बाद बलकी याद आती है; क्योंकि वे तो रामचन्द्रजीके सेवक थे और सेवकको तो सदा रामचन्द्र जैसा चाहिए वैसा बल देते रहते हैं। इसी तरह हमें आँखको देखते ही आत्माका ध्यान आना चाहिये, आत्माका दर्शन होना चाहिए।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥(५,१५)

परमेश्वर किसी भी व्यक्तिके पाप अथवा पुण्यकी जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेता। अज्ञानने ज्ञानको ढँक रखा है, इसीलिए प्राणी मोहमें पड़ जाते हैं।

मनुष्यका स्वभाव केवल सेवा करना, आत्मशुद्धि करना है। इसीलिए अहंभावको छोड़ते जाना चाहिए। इसीलिए कहा गया है कि ईश्वर किसीके पापोंकी जिम्मेदारी नहीं लेता।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥(५,१६)

ज्ञानको ढँककर रखनेवाला अज्ञान जब ज्ञानके माध्यमसे नष्ट हो जाता है तब व्यक्तिको परमात्माका प्रकाश दिखाई पड़ जाता है। ईश्वर इस सबका साक्षी रहता है। हम ईश्वरके अधीन रहकर आचरण करते हैं, उसीके चलाये चलते हैं। इसे जान लेना ज्ञान है। इस ज्ञानका अनुभव तो तभी हो सकता है जब हृदयकी सारी गाँठें खुल जायें और भीतर आत्माका ही प्रकाश होता रहे।

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रविवार, २७ जून, १९२६

मनके अँधेरेमें सूर्यके उदय होनेपर ही व्यक्ति परमेश्वरकी शरण में जाता है।

तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृति ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।(५,१७)

जिसकी बुद्धि उसमें स्थिर हो गई है, जो तद्रूप हो गया है — जिसकी निष्ठा उसीपर आधारित है और जो तल्लीन हो गया है — जिसका सब-कुछ ईश्वरार्पित हो गया है और जो सब कुछ उसीपर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता है, ऐसा व्यक्ति मुक्ति प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्तियोंका पाप ज्ञानसे धुल गया है।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥(५,१८)

पण्डित, ज्ञानवान व्यक्ति समदर्शी होते हैं। विद्या और विनयसे भरपूर ऐसे व्यक्तिकी दृष्टि ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता अथवा चाण्डाल — सभीके विषयमें समान होती है। इन सभीके विषयमें वह जानता है कि इन सबके भीतर स्थित आत्मा मुझमें स्थित आत्मा ही तो है। अन्तर केवल इतना ही है कि किसीकी आत्मापर अज्ञानके थर पड़े हुए हैं और किसीकी आत्माके ऊपरसे वे उतर गये हैं। इसके पहले