पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/२४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२१८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी कहा गया है कि जो व्यक्ति दूसरोंमें अपनेको देखता है, वह योगी है। इसका भी यही अर्थ है। गंगाका पानी अलग-अलग घटोंमें होकर भी गंगाजल ही होगा।

इहैव तैजितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।(५,१९)

जो व्यक्ति समभाव रखता है, जो निर्दोष है, जो परमात्मामें स्थित है और जो एकाग्रचित्त होकर रहता है उस व्यक्तिने यहीं, इसी जन्ममें संसारको जीत लिया है।

व्यक्तिको समदर्शी हम कब कह सकते हैं? जो चींटी और हाथीको समान देखता है, उसे, या उसे जो सबको उनकी आवश्यकताके अनुसार देता है? मां बीमार बालकको कुछ भी नहीं देती और स्वस्थ बच्चेको भरपेट खिलाती है। जिस व्यक्तिके मनमें अहिंसा है, दया है, वह जगत् में ऐसा आचरण करेगा कि जगत् उसके विषयमें यही कहे कि यह व्यक्ति सबके प्रति ऐसा बरताव करता है मानो वे व्यक्ति उससे भिन्न नहीं हैं। वह सबके प्रति न्याय करता है। जिसे पानी चाहिए उसे पानी देता है और जिसे दूध चाहिए, उसे दूध।

परमात्मा जैसा निर्दोष और समभावी अन्य कोई नहीं है, इसलिए हम उसमें लीन होकर ही समदर्शी हो सकते हैं।

[१३]

मंगलवार, २९ जून, १९२६

समदर्शीका उदाहरण देते हुए हमने हाथी और चींटीकी बात की। शत्रु और मित्रकी बात भी कर सकते हैं। यदि दोनों भूखे हमारे पास आयें, तो हमें पहले शत्रुको भोजन देना चाहिए। इसीको वह न्याय मानेगा। नहीं तो वह सोच सकता है कि मनमें कहीं कोई द्वेष बच गया है। इसलिए समदर्शी पहले तो शत्रुको ही सन्तोष देगा। मित्र भी उसके इस आचरणको योग्य आचरण मानेगा।

पण्डितका अर्थ केवल पढ़ा हुआ ही नहीं है, गुना हुआ भी है। यदि कोई उससे कहे कि शत्रुको खिलाना तो दूध पिलाकर साँप पालने जैसा है तो वह अपने इस कामका समर्थन 'गीताजी 'के इस श्लोकके द्वारा करता हुआ कहेगा कि मैं ठहरा श्रद्धालु, मेरे पिता 'गीता' के भक्त थे, मैं भी 'गीता' का भक्त हूँ। 'गीता' की आज्ञा-पालन करते हुए हमें कभी हानि नहीं हुई, तब फिर मैं ऐसा आचरण क्यों न करूँ?

स्वदेशीका एक नियम यह है कि हम पहले उसकी सेवा करें जो हमारे समीप है। इससे विपरीत भी एक नियम है, जिसमें समीपके व्यक्तिकी अपेक्षा पहले दूरवर्ती मनुष्यकी सेवा की जाती है। यहाँ समीपका अर्थ है देहके समीप और दूरका अर्थ है मनसे दूर। ये दोनों बातें एक रीतिसे समान ही हैं। शत्रु देहसे समीप होकर भी मनसे तो दूर ही रहता है। फिर भी पहले उसीकी सेवा की जानी चाहिए।

स्वदेशीमें समीपस्थकी सेवाका नियम इसीलिए है कि हम संसारके सभी मनुष्योंके पास नहीं पहुँच सकते। यदि समीपस्थ व्यक्तिकी सेवा करनेके बदले हम दूरस्थ व्यक्तियोंकी सेवा करने जायें तो वह हमारा अभिमान ही होगा।