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'गीता-शिक्षण'

जो मनसे दूर है, पहले उसकी सेवा करनेमें विनयशीलता है, सभ्यता है, समझदारी है।

'इहैव तैजितः सर्गो' वाले श्लोकमें निहित नियमके अनुसार आचरण करनेवाला व्यक्ति वह व्यक्ति है जिसने संसारको जीत लिया है। वह शत्रु और मित्रको समान गिनता है । शत्रुको वह हाथीकी तरह अधिक और मित्रको चींटीकी तरह कम देने में आगा-पीछा नहीं करेगा। हमें जिसमें ओतप्रोत होना है, पहले हमें उस जैसा बनना चाहिए। ब्रह्म में लीन होनेकी इच्छा है, इसीलिए हमें ब्रह्मकी तरह समदर्शी होना ही चाहिए।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः।।(५,२०)

प्रियको प्राप्त करके प्रसन्न न हों और अप्रियके मिल जानेपर उत्तेजित न हों। जो बुद्धि और मोहके वशमें नहीं होता वह ब्रह्ममें स्थित होता है।

[ ९४ ]

बुधवार, ३० जून, १९२६

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते।।(५,२१)

जो व्यक्ति ब्रह्मयोगको प्राप्त करके मुक्त हो गया है। जो अपनी बाह्येन्द्रियोंके विषयोंके प्रति आसक्तिरहित है, ऐसा व्यक्ति अपनी आत्मामें सच्चे सुखको प्राप्त करता है। संगरहित होनेपर ही शान्त रहा जा सकता है। इन्द्रियोंके विषयोंके स्पर्शको समाप्त करना अशक्य है; इसलिए कहा गया कि संगरहित रहना है। यदि हमारा ध्यान रामके चरणोंमें लगा हुआ है तो होनेवाले बाह्य स्पर्शका हमपर कोई असर नहीं होता। ब्रह्मयोगमें युक्त व्यक्तिका अर्थ है वह आत्मा जिसने ब्रह्मसमाधि प्राप्त कर ली है, जो ब्रह्ममें स्थित हो चुका है; वह तो अक्षय सुखको प्राप्त हो जाता है।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥(५,२२)

बाह्य स्पर्शोसे उत्पन्न होनेवाले भोग दुःख उत्पन्न करनेवाले होते हैं। वे आदि और अन्तयुक्त हैं अर्थात् आते-जाते रहते हैं। बुद्धिमान मनुष्य उनमें सुख नहीं मानता।

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राकारीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।(५,२३)

शरीरका नाश होनेके पहले ही इस संसारमें रहते हुए जो व्यक्ति काम और क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले वेगको सहन कर पाता है, वह योगी है और सुखी है। दूसरे अध्यायमें जो कुछ कहा जा चुका है, यहाँ उसीकी पुनरावृत्ति है।